शुक्रवार, 18 मई 2018

    परमार अग्नि वंशीय हैं। श्री राधागोविन्द सिंह शुभकरनपुरा टीकमगढ़ के अनुसार तीन गोत्र हैं-वशिष्ठ, अत्रि व शाकृति। इनकी शाखा वाजसनेयी, सूत्र पारसकर, ग्रहसूत्र और वेद यजुर्वेद है। परमारों की कुलदेवी दीप देवी है। देवता महाकाल, उपदेवी सिचियाय माता है। पुरोहित मिश्र, सगरं धनुष, पीतध्वज और बजरंग चिन्ह है। उनका घोड़ा नीला, सिलहट हाथी और क्षिप्रा नदी है। नक्कारा विजयबाण, भैरव कालभैरव तथा ढोल रणभेरी और रत्न नीलम है।

    परमारों का निवास आबू पर्वत बताया गया है। क्षत्रिय वंश भास्कर के अनुसार परमारों की कुलदेवी सिचियाय माता है, जिसे राजस्थान में गजानन माता कहते हैं। परमारों के गोत्र कहीं गार्ग्य, शौनक व कहीं कौडिल्य मिलते है। उत्पति- परमार क्षत्रिय वंश के प्रसिद्ध 36 कुलों में से एक हैं। ये स्वयं को चार प्रसिद्ध अग्नि वंशियों में से मानते हैं। परमारों के वशिष्ठ के अग्निकुण्ड से उत्पन्न होने की कथा परमारों के प्राचीनतम शिलालेखों और ऐतिहासिक काव्यों में वर्णित है। डा. दशरथ शर्मा लिखते हैं कि ‘हम किसी अन्य वंश को अग्निवंश माने या न माने परन्तु परमारों को अग्निवंशी मानने में कोई आपत्ति नहीं है।’ सिन्धुराज के दरबारी कवि पद्मगुप्त ने उनके अग्निवंशी होना और आबू पर्वत पर वशिष्ठ मुनि के अग्निकुण्ड से उत्पन्न होना लिखा है। बसन्तगढ़, उदयपुर, नागपुर, अथूणा, हरथल, देलवाड़ा, पारनारायण, अंचलेश्वर आदि के परमार शिलालेखों में भी उत्पति के कथन की पुष्टि होती है। अबुलफजल ने आइने अकबरी में परमारों की उत्पति आबू पर्वत पर महाबाहु ऋषि द्वारा बौद्धों से तंग आने पर अग्निकुण्ड से होना लिखा है।

    प्रश्न उठता है कि अग्निवंश क्या है? इस प्रश्न पर भी विचार, मनन जरूरी है ? इतिहास बताता है कि ब्राह्मणवाद के विरुद्ध जब बौद्ध धर्म का विस्तार हुआ तो क्षत्रिय और वैश्य भी बौद्ध धर्मावलम्बी बन गये। फलतः वैदिक परम्परा नष्ट हो गई। कुमारिल भट्ट (ई.700) व आदि शंकराचार्य के प्रयासों से वैदिक धर्म में पुनः लोगों को दीक्षित किया जाने लगा। जिनमें अनेकों क्षत्रिय भी पुनः दीक्षित किये गये। ब्राह्मणों के मुखिया ऋषियों ने वैदिक धर्म की रक्षा के लिए क्षत्रियों को पुनः वैदिक धर्म में लाने का प्रयास किया, जिसमें उन्हें सफलता मिली और चार क्षत्रिय कुलों को पुनः वैदिक धर्म में दीक्षित करने में सफल हुए। आबू पर्वत पर यज्ञ करके बौद्ध धर्म से वैदिक धर्म में उनका समावेश किया गया। यही अग्निवंश का स्वरूप है।

    जिसमें परमार वंश अग्नि वंशी कहलाने लगा। छत्रपुर की प्राचीन वंशावली वंश भास्कर का वृतान्त, अबुलफजल का विवरण भी बौद्ध उत्पात के विरुद्ध बौद्ध धर्म से वैदिक धर्म में पुनः लौट आने व यज्ञ की पुष्टि करते हैं। आबू पर्वत पर यह ऐतिहासिक कार्य 6 ठी व 7 वीं सदी में हुआ था। आज भी आबूगिरी पर यज्ञ स्थान मौजूद है।

    मालवा के प्रथम परमार शासक-मालवा पर परमारों का ईसा से पूर्व में शासन था। हरनामसिंह चौहान के अनुसार परमार मौर्यवंश की शाखा है। राजस्थान के जाने-माने विद्वान ठाकुर सुरजनसिंह झाझड़ की भी यही मान्यता है। ओझा के अनुसार सम्राट अशोक के बाद मौर्यों की एक शाखा का मालवा पर शासन था। भविष्य पुराण भी मालवा पर परमारों के शासन का उल्लेख करता है।

    मालवा का प्रसिद्ध राजा गंधर्वसेन था। उसके तीन पुत्रों में से शंख छोटी आयु में ही मर गया। भर्तृहरि जी गद्दी त्याग कर योगी बन गये। तब तीसरा पुत्र विक्रमादित्य गद्दी पर बैठा। भर्तृहरि गोपीचन्द के शिष्य बन गये जिन्होंने श्रृंगार शतक, नीति शतक और वैराग्य शतक लिखे हैं। गन्धर्वसेन का राज्य विस्तार दक्षिणी राजस्थान तक माना जाता है। भर्तृहरि के राज्य छोड़ने के बाद विक्रमादित्य मालवा के शासक बने। राजा विक्रमादित्य बहुत ही शक्तिशाली सम्राट थे। उन्होंने शकों को परास्त कर देश का उद्धार किया। वह एक वीर व गुणवान शासक थे जिनका दरबार नवरत्नों से सुशोभित था। ये थे-कालीदास, अमरसिंह, वराहमिहीर, धन्वतरी वररूचि, शकु, घटस्कर्पर, क्षपणक व बेताल भट्ट। उनके शासन में ज्योतिष विज्ञान प्रगति के उच्च शिखर पर था। वैधशाला का कार्य वराहमिहीर देखते थे। उज्जैन तत्कालीन ग्रीनवीच थी जहां से प्रथम मध्यान्ह की गणना की जाती थी। सम्राट विक्रमादित्य का प्रभुत्व सारा विश्व मानता था। काल की गणना विक्रमी संवत् से की जाती थी। विक्रमादित्य के वंशजों ने 550 ईस्वी तक मालवा पर शासन किया।

    लेखक : Devisingh, Mandawa

    क्रमशः.............



  • भाग-1 से आगे ..............राजस्थान का प्रथम परमार वंश -राजस्थान में ई 400 के करीब राजस्थान के नागवंशों के राज्यों पर परमारों ने अधिकार कर लिया था। इन नाग वंशों के पतन पर आसिया चारण पालपोत ने लिखा है-
  • परमारा रुंधाविधा नाग गया पाताळ।
    हमै बिचारा आसिया, किणरी झुमै चाळ।।
    मालवा के परमार-मालव भू-भाग पर परमार वंश का शासन काफी समय तक रहा है। भोज के पूर्वजों में पहला राजा उपेन्द्र का नाम मिलता है जिसे कृष्णराज भी कहते हैं। इसने अपने बाहुबल से एक बड़े स्वतंत्र राज्य की स्थापना की थी। इनके बाद बैरीसिंह मालवा के शासक बने। बैरीसिंह का दूसरा पुत्र अबरसिंह था जिसने डूंगरपुर-बांसवाडा को जीतकर अपना राज्य स्थापित किया। इसी वंश में बैरीसिंह द्वितीय हुआ जिसने गौड़ प्रदेश में बगावत के समय हूणों से मुकाबला किया और विजय प्राप्त की। इसी वंश में जन्में इतिहास प्रसिद्ध राजा भोज विद्यानुरागी व विद्वान राजा थे।

    अजमेर में प्रवेश-मालवा पर मुसलमानों का अधिकार होने के बाद परमारों की एक शाखा अजमेर सीमा में प्रवेश कर गई। पीसांगन से प्राप्त 1475 ईस्वी के लेख से इसका पता चलता है। राघव की राणी के इस लेख में क्रमशः हमीर हरपाल व राघव का नाम आता है। महिपाल मेवाड़ के महाराणा कुम्भा की सेवा में था।

    आबू के परमार-आबू के परमारों की राजधानी चन्द्रावती थी जो एक समृद्ध नगरी थी। इस वंश के अधीन सिरोही के आस-पास के इलाके पालनपुर मारवाड़ दांता राज्यों के इलाके थे। आबू के परमारों के शिलालेख से व ताम्रपत्रों से ज्ञात होता है कि इनके मूल पुरुष का नाम धोमराज या धूम्रराज था। संवत 1218 के किराडू से प्राप्त शिलालेख में आरम्भ सिन्धुराज से है। आबू का सिन्धुराज मालवे के सिन्धुराज से अलग था। यह प्रतापी राजा था जो मारवाड़ में हुआ था। सिन्धुराज का पुत्र उत्पलराज किराडू छोड़कर ओसियां नामक गांव में जा बसा जहाँ सचियाय माता उस पर प्रसन्न हुई। उत्पलराज ने ओसियां माता का मंदिर बनवाया।

    जालोर के परमार-राजस्थान के गुजरात से सटे जिले जालोर में ग्यारहवीं-बारहवीं सदी में परमारों का राज्य था। परमारों ने ही जालोर के प्रसिद्ध किलों का निर्माण कराया था। जालोर के परमार संभवतः आबू के परमारों की ही शाखा थे। एक शिलालेख के अनुसार जालोर में वंश वाक्यतिराज से प्रारम्भ हुआ है। जिसका काल 950 ई. के करीब था।

    किराडू के परमार-किराडू के परमार वंशीय आज भी यहाँ राजस्थान के बाड़मेर संभाग में स्थित है। परमारों का वहां ग्यारहवीं तथा बारहवीं सदी से राज्य था। ई. 1080 के करीब सोछराज को कृष्णराज द्वितीय का पुत्र था ने यहाँ अपना राज्य स्थापित किया। यह दानी था और गुजरात के शासक सिन्धुराज जयसिंह का सामंत था। इसके पुत्र सोमेश्वर ने वि. 1218 में राजा जज्जक को परास्त परास्त कर जैसलमेर के तनोट और जोधपुर के नोसर किलों पर अधिकार प्राप्त किया।

    दांता के परमार-ये अपने को मालवा के परमार राजा उद्यातिराज के पुत्र जगदेव के वंशज मानते है।

    लेखक : Kunwar Devisingh, Mandawa

    क्रमशः.............
    भाग-2 से आगे ....Parmar Rajvansh ka itihas
    जगनेर के बिजौलिया के परमार-मालवा पर मुस्लिम अधिकार के बाद परमारों चारों ओर फैल गये। इनकी ही एक शाखा जगनेर आगरा के पास चली गई। उनके ही वंशज अशोक मेवाड़ आये। जिनको महाराणा सांगा ने बिजौलिया की जागीर दी।

    जगदीशपुर और डुमराँव का पंवार वंश-भोज के एक वंशज मालवा पर मुस्लिम अधिकार के बाद परिवार सहित गयाजी पिण्डदान को गये। वापस आते समय इन्होंने शाहाबाद जिला बिहार के एक हिस्से पर कब्जा कर लिया। बादशाह शाहजहाँ ने इनके वंशज नारायण मल्ल को भोजपुर जिला जागीर में दे दिया। इन्होंने जगदीशपुर को अपनी राजधानी बनाया। बाद में इन्होंने आरा जिला में डुमराँव को अपना केन्द्र बनाया। इसी वंश में 1857 की क्रांति के नायक वीर कुंवरसिंह का जन्म हुआ, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों को नाकों चने चबवा दिये थे।

    देवास और धार के परमार-मालवा पर मुस्लिम अधिकार के समय परमारों की एक शाखा जो जगनेर (आगरा के पास) चली गई जहाँ से मेवाड़ गये अशोक के छोटे भाई शम्भूसिंह ने पूना और अहमदनगर के पास के इलाकों पर कब्जा कर लिया किन्तु पड़ौसी शासक ने उसे धोखे से मार दिया। इन्हीं के वंशजों ने शिवाजी के पुत्र राजाराम को मराठा साम्राज्य के विस्तार व सुरक्षा में उल्लेखनीय योगदान दिया, जिससे प्रसन्न हो छत्रपति राजाराम ने इन्हें विश्वासराव व सेना सप्त सहस्त्रों की उच्च उपाधियाँ प्रदान की। इन्हीं के वंशज देवास व धार के स्वामी बने।

    उमट परमार-इस वंश के राजगढ़ व नरसिंहगढ़ पहले एक ही संयुक्त राज्य थे। यही कारण है आजतक इन दोनों राज्यों के भाग एक दूसरे में अवस्थित है। यहाँ के शासक परमार वंश के आदि पुरुष राजा परमार के मुंगराव के वंशज है।

    संखाला पंवार (परमार)-सांखला परमारों की एक शाखा है। वि.सं. 1318 के शिलालेख में शब्द शंखकुल का प्रयोग किया गया है। किराडू के परमार शासक बाहड़ का पुत्र बाघ जयचंद पड़िहार के हाथों मारा गया। बाघ के पुत्र वैरसी ने ओसियां की सचियाय माता से वर प्राप्त कर पिता की मौत का बदला लिया। नैणसी लिखते है कि माता ने उसे दर्शन दिए और शंख प्रदान किया, तभी से वैरसी के वंशज सांखला कहलाने लगे। इसने जयचंद पड़िहार के मून्धियाड़ के किले को तुड़वा कर रुण में किला बनवाया तब से ये राणा कहलाने लगे।

    सोढा परमार-किराडू के शासक बाहड़ के पुत्र सोढा से परमारों की सोढा शाखा चली। सोढाजी सिंध में सूमरों के पास गये जिन्होंने सोढाजी को ऊमरकोट (पाकिस्तान) से 14 कोस दूर राताकोर दिया। सोढा के सातवें वंशधर धारवरीस के दो पुत्र आसराव और दुर्जनशाल थे। आसराव ने जोधपुर में पारकर पर अधिकार किया। दुर्जनशाल ऊमरकोट की तरफ गया। उसकी चौथी पीढ़ी के हमीर को जाम तमायची ने ऊमरकोट दिया। अंग्रेजों के समय राणा रतनसिंह सोढा ने अंग्रेजों का डटकर मुकाबला किया पर उन्हें पकड़कर फांसी पर चढ़ा दिया गया।

    वराह परमार-ये मारवाड़ के प्रसिद्ध परमार शासक धरणी वराह के वंशज थे जिनका राज्य पूरे मारवाड़ और उससे भी बाहर तक फैला हुआ था। उसके नौकोट किले थे। इसीलिए मारवाड़ नौ कुटी कहलाई। मारवाड़ के बाहर उसका राज्य संभार प्रदेश, जैसलमेर तथा बीकानेर के बहुत से भूभाग पर था। वर्तमान जैसलमेर प्रदेश पर उनके वंशज वराह परमारों चुन्ना परमारों व लोदा परमारों के राज्य थे। मंगलराव भाटी ने पंजाब से आकर विक्रम 700 के करीब इनसे यह भूभाग छीन कर अपने अधीन कर लिया। वराह शाखा के परमार वर्तमान पटियाला जिले में है।
    लेखक : Kunwar Devisingh, Mandawa
    परमारों का विस्तार-उज्जैन छूटने के बाद परमारों की एक शाखा आगरा और बुलंदशहर में आई। उन्नाव के परमार मानते है कि बादशाह अकबर ने उन्हें इस प्रदेश में जागीर उनकी सेवाओं के उपलक्ष में दी। यहाँ से वे गौरखपुर में फैले। कानपुर, आजमगढ़ और गाजीपुर में परमार उज्जैनियां कहलाते हैं जो यहाँ बिहार से आये। इनके मुखिया राजा डुमराँव है। उज्जैनियां कहलाने से यह सिद्ध होता है कि वे उज्जैन से ही आये थे। ललितपुर और बांदा में भी परमार मिलते है। मध्यप्रदेश में इनके दो राज्य थे। नरसिंहगढ़ और राजगढ़। मध्यप्रदेश में परमारों की बहुसंख्या होने के कारण वह क्षेत्र बहुलता के कारण परमार पट्टी कहलाता है। गुजरात में इनका राज्य मामूली था। राजस्थान में जोधपुर (मारवाड़) तथा उदयपुर (मेवाड़) जैसलमेर, बीकानेर और धौलपुर इलाकों में हैं। उदयपुर में बिजौलिया ठिकाना सोला के उमरावों में से था। धौलपुर में ये बड़ी संख्या में है। जिन्द और रोहतक में वराह परमार हैं जो जैसलमेर पर भाटियों के अधिकार कर लेने पर पंजाब में जा बसे थे। मेरठ, फर्रुखाबाद, मुरादाबाद, शाहजहांपुर, बाँदा, ललितपुर, फैजाबाद व बिहार में भी ये बड़ी संख्या में स्थित हैं।

    आजादी के बाद-पंवारों में अनेकों कुशल राजनीतिज्ञ हुए हैं जिन्होंने भारत के नवनिर्माण में सहयोग प्रदान किया है। राजमाता टिहरी गढ़वाल लोकसभा की सदस्या रही। उनके पुत्र मानवेन्द्र शाह उनके बाद संसद सदस्य चुने गये। मानवेन्द्रशाह इटली में भारत के राजदूत भी रहे हैं। उनके भाई शार्दूल विक्रमशाह भी राजदूत रह चुके हैं। नरसिंहगढ़ के महाराजा भानुप्रतापसिंह लोकसभा के सदस्य व बाद में इन्दिरा गांधी के मन्त्रीमण्डल के सदस्य बने। आपके पुत्र मध्यप्रदेश विधान सभा के सदस्य रहे। बिजौलिया राजस्थान के राव केसरीसिंह राजस्थान विधानसभा के सन् 1952 में विधायक चुने गये। 

    पाकिस्तान में सोढ़ा ऊमराकोट क्षेत्र में है। ऊमरकोट के राणा चन्द्रसिंह पाकिस्तान की संसद के सदस्य चुने गये तथा भुट्टों के मन्त्रीमण्डल में एकमात्र गैर मुस्लिम मन्त्री रहे।
    सन् 1971 के भारत पाक युद्ध के समय विशेषकर लक्ष्मणसिंह सोढ़ा का सहयोग विशेष उल्लेखनीय है। इनके सहयोग से ही भारतीय सेना जयपुर नरेश ले. कर्नल भवानीसिंह के नेतृत्व में घाघरापार और वीराबा क्षेत्रों में दुश्मन को परास्त कर अधिकार कर सकी।

    स्पष्ट है परमार वंश में राजा भोज जैसे दानी कुंवरसिंह जैसा बहादुर योद्धा और लक्ष्मणसिंह सोढ़ा जैसे राष्ट्रधर्म के पुजारियों ने जन्म लिया। यह वीर वंश है जिसने अनेकों योद्धाओं को जन्म दिया, पाला और देश को समर्पित कर दिया। मुहणोत नैनसी के अनुसार परमारों की 35 मुख्य शाखायें मानी जाती हैं। विभिन्न विद्वानों में इस पर मतभेद भी है परन्तु वर्तमान में परमार वंश की कुल ज्ञात शाखायें 184 हैं। 

    लेखक : देवीसिंह, मंडावा

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