रविवार, 27 मई 2018

सैनी समाज का इतिहास (भागीरथ सेना के शब्दों में)

क्षत्रिय वंश की उत्पत्ती - 
         हिन्दुओं के बड़े-बड़े पूर्वकाल के ग्रंथों से ज्ञात होता है कि पूर्वकाल में (विवस्वान) सूर्य तथा चंद्रमा महान आत्मा वाले तथा तेजयुक्त प्राकर्मी व्यक्तियों ने जन्म लिया। उन्होंने शनैः - शनैः क्षत्रिय कुल का विस्तार किया। विवस्तमनु ने सूर्यवंश तथा चंद्र के पुत्र बुद्ध ने चंद्रवंश की प्रसिद्धी की। दोनों महापुरूषों ने भारत भूमि पर एक ही समय में अपने विशाल वृक्षों को रोपित किया। आगे चलकर इन दोनों वंशों में जैसे-जैसे महापुरूषों का समय आता गया वंशों और कुलों की वृद्धि होती गई। सूर्यवंश में अनेक वंश उत्पन्न हुए, जैसे इक्ष्वांकु वंश, सगर वंश, रघु वंश, भागीरथी वंश, शूरसेन वंश तथा अनेक वंश व कुलों की उत्पत्ति हुई।


महाराजा भागीरथ के पूर्वज- 
          श्रीमद् भागवत् पुराण, स्कंद पुराण, हरिवंश पुराण, विष्णु पुराण, पदम पुराण, वाल्मिकी रामायण, महाभारत और कौटिल्य के अर्थशास्त्र आदि ग्रंथों के अनुसार पहला आर्य राजा वैवस्वत मनु हुआ। उसकी एक कन्या व आठ पुत्र थे। सबसे बड़ा पुत्र इक्ष्वांकु था। जो मध्य देश का राजा बना। जिसकी राजधानी अयोध्या थी। इसी वंश को सूर्यवंश नाम से ख्याति मिली। राजा इक्ष्वाकु के 19 पीढ़ी बाद इस वंश में महान चक्रवर्ती सम्राट मान्धाता हुए। उनके 12 पीढ़ी बाद सत्यवादी राजा हरीश्चंद्र हुए, जो राजा त्रिशंकु के पुत्र थे।
राजा हरीश्चंद्र की 8वीं पीढ़ी में राजा सगर हुए। इनकी दो रानियां थी एक कश्यप कुमारी सुमति और दूसरी केशिनी। सुमति से 60 हजार पुत्र हुए और रानी केशिनी से उन्हें असमंजस नामक पुत्र प्राप्त हुआ। पौराणिक अनुश्रुति के अनुसार राजा सगर ने चक्रवर्ती सम्राट की उपाधि धारण करने के लिए अश्वमेघ यज्ञ किया। इनकी अभिलाषा से अप्रसन्न इंद्र ने यज्ञ के घोड़े को चुराकर पाताल ;आधुनिक गंगा सागरद्ध स्थान पर परम् ऋषि कपिल के आश्रम में बांध दिया। घोड़े के खुरों के चिन्हों का पीछा करते हुए सगर के 60 हजार पुत्र आश्रम में पहुंचे। इस दौरान कुछ कुमारों ने उत्पात मचाते हुए मुनि को ललकारा और मुनि का ध्यान भंग हो गया। उन्होने कुपित दृष्टि से उनकी ओर देखा और थोड़ी ही देर में सभी राजकुमार अपने ही शरीर से उत्पन्न अग्नि में जलकर नष्ट हो गए। 
राजा सगर ने अपने पौत्र अंशुमान को 60 हजार चाचाओं और यज्ञ के घोडे के विषय में समाचार लाने का आदेश दिया। राजा ने उसे वंदनीय को प्रणाम और दुष्ट को दण्ड देने का आदेश देते हुए सफल मनोरथ के साथ लौटने का आशीर्वाद दिया। अंशुमान उन्हें खोजते-खोजते कपिल मुनि के आश्रम पहुंच गए। वहां का दृश्य देख वे शोक और आश्चर्य से व्याकुल हो उठे। उन्होंने धैर्य रखते हुए सर्वप्रथम मुनि की स्तुति की। कपिल मुनि उनकी बुद्धिमानी और भक्तिभाव से प्रसन्न होकर बोले- घोड़ा ले जाओ और जो इच्छा हो वर मांगो। अंशुमान ने कहा मुनिवर ऐसा वर दीजिए जो ब्रह्मदंड से आहत मेरे पित्रगणों को स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला हो। इस पर मुनि श्रेष्ठ ने कहा कि गंगा जी को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने का प्रयत्न करो। उसके जल से इनकी अस्थियों की भस्म का स्पर्श होते ही ये सब स्वर्ग को चले जाएंगे। अंशुमान वापस राज्य में आ गए और सब कुछ राजा सगर को कह सुनाया। राजा सगर और उनके पुत्र असमंजस और असमंजस के पुत्र अंशुमान अनेक प्रकार के तप और अनुष्ठान द्वारा गंगा जी को पृथ्वी पर लाने का प्रयास करते-करते जीवन त्याग गए। परंतु गंगा को पृथ्वी पर लाने का कोई मार्ग दिखाई नहीं दिया। अंशुमान के पुत्र राजा दिलीप का भी सारा जीवन इसी प्रयास में व्यतीत हो गया किन्तु सफलता नहीं मिली। राजा दिलीप के पश्चात उनका अत्यंत धर्मात्मा पुत्र भागीरथ राजा बना। उनकी कोई संतान नहीं थी। उन्होंने अपने जीवन के दो लक्ष्य निर्धारित किए। एक वंश वृद्धि हेतु संतान प्राप्ति और दूसरा अपने प्रपितामहों का उद्धार। अपने राज्य का भार मंत्रियों पर छोड़कर वे गोकर्ण तीर्थ में जाकर घोर तपस्या में लीन हो गए। 
विष्णु पुराण अध्याय-4 अंश चार एवं वाल्मिकी रामायण बाल कांड सर्ग 21 के अनुसार भगवान ब्रह्मा जी ने प्रकट होकर भागीरथ को वर मांगने को कहा। भागीरथ ने ब्रह्मा जी से अपने प्रपितामहों को अक्षय स्वर्ग लोक की प्राप्ति के लिए गंगा जल को पृथ्वी पर प्रवाहित करने और अपने वंश वृद्धि हेतु संतान का वर मांगा। भगवान ब्रह्मा जी ने हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री हेमवती गंगा जी के दर्शन भागीरथ जी को कराए और कहा कि इसके तीव्र वेग को केवल भोले शंकर ही अपने मस्तक पर धारण कर सकते हैं अन्यथा सम्पूर्ण पृथ्वी रसातल में धंस जाएगी। वंश वृद्धि के लिए भगवान ब्रह्मा जी ने भागीरथ को वर दिया। आगे चलकर भागीरथ को श्रुत नाम का पुत्र रतन प्राप्त हुआ। भागीरथ जी ने एक वर्ष तक भगवान शिव की कठोर तपस्या की। जिस पर शिवजी प्रसन्न होकर गंगा को अपने मस्तक पर धारण करने को तैयार हुए। तब भागीरथ ने पुनः ब्रह्मा जी की स्तुति कर गंगा को पृथ्वी की कक्षा में छोड़ने को कहा। तब जाकर भगवान शंकर जी ने गंगा जी को अपनी जटाओं में धारण किया। इसके बाद उन्होंने गंगाजी को बिन्दू सरोवर में ले जाकर छोड़ दिया। वहां से यह महाराजा भागीरथ जी के रथ के पीछे चली और भागीरथ जी इसे अपने प्रपितामहों की भस्म तक ले गए। इसके जल में स्नान कर भागीरथ जी ने अपने प्रपितामहों का तर्पण किया। इस प्रकार उनको सद्गति मिली और राजा सगर भी पाप बोध से मुक्त हुए। सफल मनोरथ से भागीरथ अपने राज्य में लौट आए। गंगा जी को इनके नाम से जोड़कर भगीरथी भी कहा जाता है। राजा भागीरथ के बाद 17वें वंश में राजा रघु हुए। इनके नाम से रघुकुल अथवा रघुवंश विख्यात हुआ। रघु के अज और अज के राजा दशरथ हुए। इनके चार पुत्र राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघन हुए। राम के पुत्र कुश से कुशवाह वंश चला। आगे चलकर भगवान बुद्ध भी इसी वंश में हुए। उनसे शाक्य वंश प्रारम्भ हुआ। इसमें शत्रुघन के पुत्र शूरसेन और शूरसेन के पुत्र सैनी महाराज हुए। महाराजा चंद्रगुप्त मौर्य से मौर्य वंश प्रारम्भ हुआ। 
सैनी कुल इतिहास का प्रारम्भ सैनी महाराज अथवा शूरसेन महाराज से मानने की एक परम्परा आज भी प्रचलित है। इस कुल में एक वर्ग भगीरथी सैनी कहकर पुकारे जाने की परम्परा भी है। यदि विचार किया जाए तो स्वीकार करना पड़ेगा कि ये सभी एक ही वंश से हैं। इसी में 20 पीढ़ी पहले महाराजा भागीरथ हुए। इस प्रकार महाराजा भागीरथ आदरणीय सैनी समाज के भी पूर्वज थे। भगवान बुद्ध के भी पूर्वज थे, अशोक महान के भी पूर्वज थे। समय की गति के साथ शाखाएं फूटती हैं किन्तु जड़ एक और स्थिर रहती है। सैनी सूर्यवंशी हैं सैनी नाम के भीतर भागीरथी,गोला, शुरसेन, माली, कुशवाह, शाक्य, मौर्य, काम्बोज आदि समाहित हैं। महाराजा भागीरथ हमारे ज्येष्ठ पूर्वज हैं। इनकी विभिन्न शाखाओं में होने वाले अत्यंत गुणशील, वीर और आदर्श महान हस्तियां हम सबके लिए गौरव का प्रतीक हैं।
आज अपने गौरवशाली इतिहास को बचने के लिए भागीरथ सेना (भागीरथ गंगा सेवा समिति उप्र ) आपके अपने समाज को जोड़ने के लिए सदेव तत्पर है |


    अलका सैनी
    जन्म : १८ फरवरी १९७१ को चंडीगढ़ में .
     शिक्षा : लोक -प्रशासन में पंजाब यूनिवर्सिटी से स्नातकोत्तर उपाधि (१९९३ ), भारतीय विद्या भवन से पत्रकारिता में डिप्लोमा। चंडीगढ़ की सुंदर घाटियों जन्मी अलका सैनी को प्रकृति प्रेम और कला के प्रति बचपन से अनुराग रहा। 
    कॉलेज जमाने से साहित्य और संस्कृति के प्रति रूझान बढ़ा।
     पत्रकारिता जीवन का पहला लगाव था जो आजतक साथ है।
     खाली समय में जलरंगों, रंगमंच, संगीत और स्वाध्याय से दोस्ती, 
    कार्यक्षेत्र : न मैं कोई लेखिका हूँ ,न मैं कोई कवयित्री , न मेरी ऐसी कोई खवाहिश है , बस ! ऐसे ही मन में एक उमंग उठी, कि साहित्य -सृजन करूँ जो नारी-दिल की व्यथा को प्रकट करें एक सच्चे दर्पण में , एक आशा के साथ , कवि की पंक्तियों कि कभी पुनरावृति न हो , हाय ! अबला तेरी यही कहानी , आँचल में है दूध और आँखों में पानी .

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    नेक चंद सैनी ( रॉक- गार्डन )
    नेक चंद सैनी १५ दिसंबर १९२४ को गाँव- बरियन कलां नजदीक तहसील- शकरगढ़ (नारोवल डिसट्रीक्ट) में पैदा हुए . १२ साल की उम्र में उन्हें उनके अंकल के यहाँ गुरदासपुर जिले में पढ़ाई करने के वास्ते भेज दिया गया . वह मैट्रिक तक की पढ़ाई करने के बाद १९४३ में अपने गाँव वापिस आ गए. गाँव आने के बाद उन्होंने अपने पिताजी के खेत में काम करना शुरू कर दिया . जब १९४७ में भारत का विभाजन हुआ तो हिन्दू होने के कारण उन्हें अपने घर से बेघर होना पड़ा और अपने गाँव को छोड़ना पड़ा जो कि अब पाकिस्तान में है . वे गुरदासपुर जिले में आकर रहने लगे .
    नेकचंद सैनी सरकार को अपने अच्छे भाग्य के कारण रेफूजी नौकरी देने के प्रोग्राम के तहत चंडीगढ़ में अपनी पत्नी के साथ आकर बसने का मौका मिला . चंडीगढ़ में उन्होंने १० अक्तूबर , १९५० को P . W . D . में सड़क निरीक्षक के तौर पर नौकरी करनी शुरू की. उनका पेशा आज कल एक कलाकार का है . और अब वह चंडीगढ़ में ही स्थायी निवासी के तौर पर अपने परिवार के साथ रहते हैं .बाद में उनका छोटा भाई भी यहीं आकर बस गया और आज कल वह भी अपने परिवार के साथ यहीं पर रहता है .

    नेकचंद सैनी ने ना सिर्फ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में बेशुमार ख्याति प्राप्त की है जोकि हम सब भारतीयों के लिए एक गौरव- शाली बात है . नेकचंद सैनी से मेरी दूर की रिश्तेदारी होने के नाते कुछेक कार्यक्रमों में उन्हें मिलने का और जानने का मौका भी मिला है . वह एक बहुत ही सीधे- सादे इंसान है . अंतर्राष्ट्रीय हस्ती होने के बावजूद भी उनके चेहरे पर घमंड या अपने उच्च पद के कोई भाव देखने को नहीं मिलते. यही एक बड़े इंसान की बद्दप्पन की निशानी है . उन्होंने रॉक गार्डन का निर्माण करके ना केवल अपना बल्कि भारत का नाम पूरे विश्व में ऊंचा कर दिया . विदेशों से भी उन्हें कई बार रॉक गार्डन की तरह का पार्क बनाने का न्योता आ चुका है . रॉक गार्डन के निर्माण से नेकचंद सैनी का नाम रहती दुनिया तक लोगों की जुबान पर रहेगा .


    रॉक गार्डन चंडीगढ़ के सैक्टर एक में बना हुआ है . इसका निर्माण श्री नेकचंद सैनी ने किया .यह चालीस एकर के क्षेत्र में फैला हुआ है . १९८४ में भारत सरकार ने उनके इस अद्दभुत योगदान के लिए पदम् श्री से नवाजा था
    जब चंडीगढ़ के निर्माण का कार्य शुरू हुआ तब नेकचंद को १९५१ में सड़क निरीक्षक के पद पर रखा गया था .नेकचंद ड्यूटी के बाद अपनी साइकिल उठाते और शहर बनाने के लिए आस पास के गाँवों से टूटा फूटा सामान इकट्ठा करके ले आते .सारा सामान उन्होंने पी. डबल्यू. डी. के स्टोर के पास इकट्ठा करना शुरू कर दिया .और धीरे- धीरे अपनी कल्पना के अनुसार उन टूटी हुई चीजों को आकार देना शुरू कर दिया .अपने शौक के लिए छोटा सा एक गार्डन बनाया और धीरे- धीरे उसे बड़ा करते गए उस समय चंडीगढ़ की आबादी नामात्र ही थी .वह यह काम चोरी छिपे काफी समय तक करते गए और काफी समय तक किसी की निगाह नहीं पड़ी .सरकारी जगह का इस तरह का उपयोग एक तरह से अवैध कब्ज़ा ही था इसलिए सरकारी गाज गिरने का डर हमेशा बना रहता था .एक दिन जंगल साफ़ कराते समय १९७२ एक सरकारी उच्च अधिकारी की इस पर नजर पड़ ही गई .मगर उन्होंने नेक चंद के इस अद्दभुत कार्य को सराहा .और इस पार्क को जनता को समर्पित कर दिया . उन्हे इस पार्क का सरकारी सब डीवीस्नल मेनेजर बना दिया गया .

    खाली समय में पत्थर एकत्र कर उन्हें तरह -तरह की आकृतियों के रूप में संजोते हुए नेकचंद सैनी ने कभी सोचा नहीं रहा होगा कि एक दिन उनका यह काम अनोखे पार्क के रूप में सामने आएगा, जिसे देखने के लिए लोग देश- विदेशों से आएंगे। ध्वस्त मकानों के मलबे से पत्थर जुटाने का काम एक, दो साल नहीं बल्कि पूरे 18 साल तक चला।

    नेकचंद अक्सर कहते हैं कि ‘‘18 बरस के समय का ध्यान ही नहीं रहा और कभी सोचा ही नहीं था कि रॉक गार्डन बन जाएगा। सरकारी नौकरी करते हुए मैं तो खाली समय में पत्थर एकत्र करता और उन्हें सुखना झील के समीप लाकर अपनी कल्पना के अनुरूप आकृतियों का रूप दे देता। ’’ अब नेकचंद की उम्र करीब 85 साल हो चुकी है और वह बेहद धीरे- धीरे बोलते हैं। धीरे- धीरे आकृतियां 12 एकड़ के परिसर में नजर आने लगीं। हर तरह की आकृतियां, नृत्यांगना, संगीतज्ञ, पशु, पक्षी, फौजी... सब कुछ। लोगों की नजर इस पर 1975 में पड़ी।

    दिलचस्प बात यह है कि पूरा रॉक गार्डन रीसाइकिल की हुई अपशिष्ट सामग्री से बना है। इस अनूठे पार्क का प्रबंधन ‘‘द रॉक गार्डन सोसायटी’’ करती है। दूर- दूर से दर्शक नेकचंद की इस कला को देखने के लिए आते हैं।

    वर्ष 1983 में रॉक गार्डन के शिल्पकार नेकचंद को पद्मश्री से सम्मानित किया गया और उनका अनूठा पार्क१९७३ से १९७८ तक भारतीय डाक टिकट पर नजर आया।
    वह कहते हैं
    ‘‘अब उम्र साथ नहीं देती, वरना मैं इस पार्क में बहुत कुछ करना चाहता हूं।’’

    रॉक गार्डन न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी लोकप्रिय हुआ। अमेरिका के वाशिंगटन स्थित ‘‘चिल्ड्रेन्स म्यूजियम’’ के निदेशक एन लेविन ने जब चंडीगढ़ की यात्रा में रॉक गार्डन देखा तो उन्होंने नेकचंद से अपने यहां ऐसा ही एक पार्क बनाने का अनुरोध किया। नेकचंद मान गए। वाशिंगटन में 1986 में रॉक गार्डन के लिए काम शुरू हुआ और इसके लिए शिल्प भारत से भेजे गए।


    सरकार ने नेकचंद को recyclable material इकट्ठा करने में मदद की और इन्हें पचास मजदूर भी काम करने के लिए दिए थे और आजकल तो यह पार्क इतने बड़े क्षेत्र में फ़ैल चुका है कि कई मजदूर और कारीगर इसके रख रखाव में रात दिन लगे रहते है तांकि चंडीगढ़ की इस अनमोल धरोहर को संझो कर रखा जा सके. इस गार्डन में सभी मूर्तियाँ , कला कृतियाँ बेकार सामान से बनाई गई हैं जैसे कि टूटी हुई चूड़ियाँ , बोतलें , डिब्बे , तिन बिजली वाली टूटी हुई ट्यूबें , बल्ब आदि यानी कि सब काम ना आने वाला सामान यहाँ इस्तेमाल किया गया है . जिन्हें देखकर कोई भी हैरान हुए बिना नहीं रह सकता .
    यहाँ पानी का एक कृत्रिम झरना भी है . इस पार्क में खुली जगह में एक आडीटौरियम भी बनाया गया हैं जहाँ पर कई मेलों और कार्यक्रमों का आयोजन होता रहता है .
    आज कल बच्चों को भी स्कूलों में इसी दिशा में बेकार हुए सामान से आर्ट्स विषय में जरूरत का सामान बनाना सिखाया जा रहा है .
    यह पार्क इतना बड़ा है कि घूमते घूमते पता ही नहीं चलता कि आप कहाँ से शुरू हुए थे और कहाँ ख़त्म होगा . एक के बाद एक छोटे- छोटे दरवाजे आते जाते हैं और सैलानी हैरानी से सब देखते हुए पार्क की भूल भुलैयां में खो जाते है .
    अनुमान है कि यहाँ पर प्रतिदिन ५००० सैलानी आते हैं . भारत के बाद अमरीका में नेकचंद की कला क्रीतियों का संग्रह है और विदेशों में कई जगह उनकी कला का प्रदर्शन किया जा चुका है . दुःख की बात है कि इस पार्क को अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए बहुत जद्दो जहद करनी पड़ी है .कुछ समय पहले यहाँ सरकारी गाज गिरी थी जब सरकारी आदेश पर बुलडोजर इस निर्माण कार्य को गिराने के लिए आ पहुँचे थे तब यहाँ के लोगों ने श्रृंखला बना कर इसे टूटने से बचाया था और १९८९ में अदालत ने जब फैंसला नेकचंद के पक्ष में दिया तब से इसकी ख्याति दूर- दूर तक फ़ैल गई . नेकचंद सैनी द्वारा बनाया गया यह पार्क चंडीगढ़ के लिए अत्यंत गौरव शाली बात है जो कि यहाँ कि सुन्दरता को चार चाँद लगा देता है .
    सैनी समाज का इतिहास
    अलका सैनी,चंडीगढ़
    सैनी भारत की एक योद्धा जाति है. सैनी, जिन्हें पौराणिक साहित्य में शूरसैनी के रूप में भी जाना जाता है, उन्हें अपने मूल नाम के साथ केवल पंजाब और पड़ोसी राज्य हरियाणाजम्मू और कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में पाया जाता है. वे अपना उद्भव यदुवंशी]सूरसेन वंश के राजपूतों से देखते हैं, जिसकी उत्पत्ति यादव राजा शूरसेन से हुई थी जो कृष्ण और पौराणिक पाण्डव योद्धाओं, दोनों के दादा थे. सैनी, समय के साथ मथुरा से पंजाब और आस-पास की अन्य जगहों पर स्थानांतरित हो गए.
    प्राचीन ग्रीक यात्री और भारत में राजदूत, मेगास्थनीज़ का परिचय भी सत्तारूढ़ जाति के रूप में जाती से इसके वैभव दिनों में हुआ था जब इनकी राजधानी मथुरा हुआ करती थी. एक अकादमिक राय यह भी है कि सिकंदर महान के शानदार प्रतिद्वंद्वी प्राचीन राजा पोरस, कभी सबसे प्रभावी रहे इसी यादव कुल के थे. मेगास्थनीज़ ने इस जाति को सौरसेनोई के रूप में वर्णित किया है.
    राजपूत से उत्पन्न होने वाली पंजाब की अधिकांश जातियों की तरह सैनी ने भी तुर्क-इस्लाम के राजनीतिक वर्चस्व के कारण मध्ययुगीन काल के दौरान खेती को अपना व्यवसाय बनाया, और तब से लेकर आज तक वे मुख्यतः कृषि और सैन्य सेवा, दोनों में लगे हुए हैं. ब्रिटिश काल के दौरान सैनी को एक सर्वाधिक कृषि जनजाति के रूप में और साथ ही साथ एक सैन्य वर्ग के रूप में सूचीबद्ध किया गया था.
    सैनियों का पूर्व ब्रिटिश रियासतों, ब्रिटिश भारत और स्वतंत्र भारत की सेनाओं में सैनिकों के रूप में एक प्रतिष्ठित रिकॉर्ड है. सैनियों ने दोनों विश्व युद्धों में लड़ाइयां लड़ी और 'विशिष्ट बहादुरी' के लिए कई सर्वोच्च वीरता पुरस्कार जीते.सूबेदार जोगिंदर सिंह, जिन्हें 1962 भारत-चीन युद्ध में भारतीय-सेना का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार, परमवीर चक्र प्राप्त हुआ था, वे भी सहनान उप जाति के एक सैनी थे.
    ब्रिटिश युग के दौरान, कई प्रभावशाली सैनी जमींदारों को पंजाब और आधुनिक हरियाणा के कई जिलों में जेलदार, या राजस्व संग्राहक नियुक्त किया गया था.
    सैनियों ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी हिस्सा लिया और सैनी समुदाय के कई विद्रोहियों को ब्रिटिश राज के दौरान कारावास में डाल दिया गया, या फांसी चढ़ा दिया गया या औपनिवेशिक पुलिस के साथ मुठभेड़ में मार दिया गया.
    हालांकि, भारत की आजादी के बाद से, सैनियों ने सैन्य और कृषि के अलावा अन्य विविध व्यवसायों में अपनी दखल बनाई. सैनियों को आज व्यवसायी, वकील, प्रोफेसर, सिविल सेवक, इंजीनियर, डॉक्टर और अनुसंधान वैज्ञानिक आदि के रूप में देखा जा सकता है. प्रसिद्ध कंप्यूटर वैज्ञानिक, अवतार सैनी जिन्होंने इंटेल के सर्वोत्कृष्ट उत्पाद पेंटिअम माइक्रोप्रोसेसर के डिजाइन और विकास का सह-नेतृत्व किया वे इसी समुदाय के हैं. अजय बंगा, भी जो वैश्विक बैंकिंग दिग्गज मास्टर कार्ड के वर्तमान सीईओ हैं एक सैनी हैं. लोकप्रिय समाचार पत्र डेली अजीत, जो दुनिया का सबसे बड़ा पंजाबी भाषा का दैनिक अखबार है उसका स्वामित्व भी सैनी का है.
    पंजाबी सैनियों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा अब अमेरिका, कनाडा और ब्रिटेन आदि जैसे पश्चिमी देशों में रहता है और वैश्विक पंजाबी प्रवासियों का एक महत्वपूर्ण घटक है.
    सैनी, हिंदू और सिख, दोनों धर्मों को मानते हैं. कई सैनी परिवार दोनों ही धर्मों में एक साथ आस्था रखते हैं और पंजाब की सदियों पुरानी भक्ति और सिख आध्यात्मिक परंपरा के अनुरूप स्वतन्त्र रूप से शादी करते हैं.
    अभी हाल ही तक सैनी कट्टर अंतर्विवाही क्षत्रिय थे और केवल चुनिन्दा जाति में ही शादी करते थे. दिल्ली स्थित उनका एक राष्ट्रीय स्तर का संगठन भी है जिसे सैनी राजपूत महासभा कहा जाता है जिसकी स्थापना 1920 में हुई थी.
    इतिहास
    " The above group of Yadavas came back from Sindh to Brij area and occupied Bayana in Bharatpur district. After some struggle the 'Balai' inhabitants were forced by Shodeo and Saini rulers to move out of Brij land and thus they occupied large areas.".[१६]
    – Encyclopaedia Indica: India, Pakistan, Bangladesh, Volume 100, pp 119 - 120
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    प्राचीन भारत के राजनीतिक मानचित्र में ऐतिहासिक सूरसेन महाजनपद. सैनियों ने इस साम्राज्य पर 11 ई. तक राज किया (मुहम्मदन हमलों के आरंभिक समय तक). [
    भौगोलिक वितरण और तुलनात्मक जनसंख्या
    1881 की जनगणना के अनुसार, जो सबसे प्रामाणिक रिकॉर्ड है क्योंकि यह उस समय से पहले की है जब हर प्रकार के समूहों ने सैनी पहचान को अपनाया, सैनी अविभाजित पंजाब के बाहर नहीं मिलते थे जिसका वर्तमान अर्थ निम्नलिखित राज्यों से है:
    • पंजाब
    • हरियाणा
    • हिमाचल प्रदेश
    • जम्मू-कश्मीर
    ए. ई. बार्स्टो के अनुसार भौगोलिक वितरण
    ए. ई. बार्स्टो के अनुसार 1911 की जनगणना के आधार पर सैनियों की कुल जनसंख्या केवल 113,000 थी और उनकी उपस्थिति मुख्य रूप से दिल्ली, करनाल, अंबाला, और लयालपुर (पाकिस्तान में आधुनिक फैसलाबाद) जिला, जालंधर और लाहौर प्रभागों और कलसिया, नाहन, नालागढ़, मंडी कपूरथला और पटियाला राज्यों तक सीमित थी. उनके अनुसार, उनमें से केवल 400 मुस्लिम थे और बाकी हिंदू और सिख थे. 1881 की जनगणना के अनुसार, सबसे बड़ा सैनी कुल जालंधर डिवीजन के होशियारपुर जिले में था जहां ज़मीन और प्रभाव के मामले में शासन की स्थिति में थे. लाहौर डिवीजन में वे मुख्यतः गुरदासपुर में केंद्रित थे जहां सलाहरिया (सलारिया), सबसे बड़े सैनी कुल के रूप में लौट रहे थे. जम्मू क्षेत्र के सैनी, पड़ोस के गुरदासपुर जिले के सैनियों का अनिवार्य रूप से हिस्सा थे.
    ब्रिटिश काल के पंजाब के डिवीजन का वर्तमान परस्पर-संदर्भ
    ब्रिटिश पंजाब के जालंधर डिवीजन में निम्नलिखित जिले शामिल थे: कांगड़ा, होशियारपुर, जालंधर, फिरोजपुर, और लुधियाना. लाहौर डिवीजन में निम्नलिखित जिले शामिल थे: लाहौर, अमृतसर, सियालकोट शेखपुरा, गुजरावाला और गुरदासपुर. वर्तमान का रोपड़ जिला विभाजन से पहले अंबाला जिले में था. इसलिए रोपड़ के सैनियों को औपनिवेशिक खातों में उस जिले में शामिल किया गया.
    यह बार्स्टो के विवरण से स्पष्ट है कि सैनी की आबादी का अधिकांश हिस्सा उन क्षेत्रों में था जो अब वर्तमान का पंजाब क्षेत्र है, और आबादी का छोटा हिस्सा वर्तमान हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में आता था, और उत्तर प्रदेश या राजस्थान में सैनी की कोई जनसंख्या नहीं थी. 1881 की जनगणना में सहारनपुर और बिजनौर में खुद को सैनी में शामिल करने वाले लोगों को सैनी की श्रेणी से 1901 की जनगणना के बाद पिछली जनगणना की खामियों के उजागर होने के बाद बाहर कर दिया गया.
    1881 की जनगणना के अनुसार सापेक्ष जनसंख्या
    सैनी की आबादी को आजादी के बाद से अलग से नहीं गिना गया है लेकिन उनकी आबादी अन्य समूहों की तुलना में कम है. 1881 के अनुसार सैनी की कुल जनसंख्या पूरे भारत में 137,380 से अधिक नहीं थी जो आगे चलकर 1901 की जनगणना में कम होकर 106,011 हो गईउसी जनगणना में खत्री की कुल जनसंख्या 439089,जबकि 1881 जनगणना के अनुसार जाट की जनसंख्या सम्पूर्ण भारत में 2630,994 थी. इस प्रकार सैनी की आनुपातिक आबादी लगभग खत्री से 1/4 और जाट से 1/25 है. 1896 में लिखे एक मानव जाति विज्ञान की अन्य समकालीन आधिकारिक कृति के अनुसार, जाट जनसंख्या 4,625,523 थी और सैनी जनसंख्या 125,352 थी, जिससे तुलनात्मक अनुपात 1:37 हो गया. यहां तक कि 1881 की जनगणना के आधार पर भी हर सैनी पर 4 खत्री और 25 जाट के साथ यह स्पष्ट है कि संख्यानुसार सैनी अल्पसंख्यक समूहों के अंतर्गत हैं जब इनकी तुलना वर्तमान समय के भारत के पंजाब और हरियाणा के सबसे महत्वपूर्ण जातीय समूहों से की जाती है.
    [संपादित करें]ब्रिटिश पंजाब के विभिन्न भागों में प्रमुख सैनी गांव और जागीर
    जालंधर जिले के 1904 के औपनिवेशिक रिकॉर्ड के अनुसार सैनी के स्वामित्व में नवाशहर की पूर्वी सीमा के पास और तहसील के दक्षिण पश्चिम में कई गांव थे.
    ब्रिटिश काल के जालंधर और नवाशहर तहसील के उन प्रमुख गांवों की सूची निम्नलिखित है जिन पर सैनी का आंशिक या पूर्ण स्वामित्व था:
    जालंधर और नवाशहर तहसील (ब्रिटिश पंजाब) रोपड़
    • बेहरोन माजरा (चमकौर साहिब के पास)
    • बीरमपुर (जिला. भोगपुर के पास होशियारपुर) पूरा गांव.
    • लधना (पूरा गांव)
    • झीका (पूरा गांव)
    • सुज्जोंन (पूरा गांव)
    • सुरपुर (पूरा गांव)
    • पाली (पूरा गांव)
    • झिकी (पूरा गांव)
    • भरता (शहीद भगत सिंह नगर के पास)
    • लंग्रोया (शहीद भगत सिंह नगर के पास)
    • सोना (शहीद भगत सिंह नगर के पास)
    • मेहतपुर (शहीद भगत सिंह नगर के पास)
    • अलाचौर (शहीद भगत सिंह नगर के पास)
    • कहमा (शहीद भगत सिंह नगर के पास)
    • बंगा शहर (बंगा सैनियों का आखिरी नामा है)(शहीद भगत सिंह नगर के पास)
    • चक (पूरा गांव)
    • खुर्द (पूरा गांव)
    • दल्ली (पूरा गांव)
    • गेहलर (पूरा गांव)
    • सैनी मजरा (पूरा गांव)
    • देसु माजरा, मोहाली के निकट (पूरा ग्राम)
    • रोपड़ के पास हवाली (पूरा ग्राम)
    • लारोहा (लगभग पूरा गांव)
    • नांगल शहीदान (लगभग पूरा गांव)
    • भुन्दियन (लगभग पूरा गांव, 5/6)
    • उरपुर (भाग 3/4 या 75%)
    • बाजिदपुर (भाग 3/4 या 75%)
    • पाली ऊंची (भाग- 1/3 या 33%)
    • नौरा (भाग- 1/2 या 50%)
    • गोबिंदपुर (भाग- 1/4 या 25%)
    • काम (भाग- 1/4 या 25%)
    • दीपालपुर (भाग -1/2 या 50%)
    • बालुर कलन (अनुपात ज्ञात नहीं)
    • खुरदे (ज्ञात नहीं अनुपात)
    • दुधाला (भाग ज्ञात नहीं अनुपात)
    • दल्ला (1/2 या 50%)
    • जन्धिर (1/2 या 50%)
    • चुलंग (1/3 या 33%)
    • गिगंवल (1/2 या 50%)
    • लसरा (1/2 या 50%) नोट: यह गांव फिल्लौर तहसील में है.
    • अड्डा झुन्गियन (पूरा गांव)
    • खुरामपुर (75%) तहसील फगवाड़ा
    • अकालगढ़ (नवा पिंड) (75%) तहसील फगवाड़ा
    • फादमा (तहसील होशियारपुर)
    • भुन्ग्रानी (होशियारपुर तहसील)
    • हरता (तहसील होशियारपुर) 90%
    • बदला (तहसील होशियारपुर) 90%
    • मुख्लिआना (तहसील होशियारपुर) 90%
    • राजपुर (तहसील होशियारपुर) 90%
    • कडोला (आदमपुर के निकट)
    • राजपुर (तहसील होशियारपुर)
    • टांडा (तहसील होशियारपुर)
    ब्रिटिश पंजाब के जालंधर जिले में उपरोक्त गांवों के अलावा, सैनी, फगवाड़ा में भी भूस्वामी या जमींदार थे. इस बात पर विधिवत ध्यान दिया जाना चाहिए कि जालंधर जिले की सैनी जनसंख्या 1880 के रिकॉर्ड के अनुसार केवल 14324 थी. इसलिए उपरोक्त सूची में पंजाब में कुल सैनी भूस्वामियों का एक छोटा सा अंश ही शामिल हैं. सबसे बड़ी सैनी जागीर और गांव होशियारपुर में और होशियारपुर जिले के दासुया तहसील में थे जहां वे अधिक प्रभावशाली और अधिक संख्या में थे. अंबाला डिवीजन (जिसमें रोपड़ जिले शामिल है) में भी सैनी स्वामित्व वाले गांवों की एक बड़ी संख्या थी. गुरदासपुर जिले में 54 गांवों पर सैनी का स्वामित्व था.

    धर्म

    हिन्दू सैनी
    हालांकि सैनी की एक बड़ी संख्या हिंदू हैं, उनकी धार्मिक प्रथाओं को सनातनी वैदिक और सिक्ख परंपराओं के विस्तृत परिधि में वर्णित किया जा सकता है. अधिकांश सैनियों को अपने वैदिक अतीत पर गर्व है और वे ब्राह्मण पुजारियों की आवभगत करने के लिए सहर्ष तैयार रहते हैं. साथ ही साथ, शायद ही कोई हिंदू सैनी होगा जो सिख गुरुओं के प्रति असीम श्रद्धा ना रखता हो.
    होशियारपुर के आसपास कुछ हिन्दू सैनी, वैदिक ज्योतिष में पूर्ण निपुण है.
    अन्य खेती करने वाले और योद्धा समुदायों के विपरीत, सैनियों में इस्लाम में धर्मान्तरित लोगों के बारे में आम तौर पर नहीं सुना गया है.
    सिख सैनी
    पंद्रहवीं सदी में सिख धर्म के उदय के साथ कई सैनियों ने सिख धर्म को अपना लिया. इसलिए, आज पंजाब में सिक्ख सैनियों की एक बड़ी आबादी है. हिन्दू सैनी और सिख सैनियों के बीच की सीमा रेखा काफी धुंधली है क्योंकि वे आसानी से आपस में अंतर-विवाह करते हैं. एक बड़े परिवार के भीतर हिंदुओं और सिखों, दोनों को पाया जा सकता है.
    [1901 के पश्चात सिख पहचान की ओर जनसांख्यिकीय बदलाव
    1881 की जनगणना में केवल 10% सैनियों को सिखों के रूप में निर्वाचित किया गया था, लेकिन 1931 की जनगणना में सिख सैनियों की संख्या 57% से अधिक पहुंच गई. यह गौर किया जाना चाहिए कि ऐसा ही जनसांख्यिकीय बदलाव पंजाब के अन्य ग्रामीण समुदायों में पाया गया है जैसे कि जाट, महतो, कम्बोह आदि. सिक्ख धर्म की ओर 1901-पश्चात के जनसांख्यिकीय बदलाव के लिए जिन कारणों को आम तौर पर जिम्मेदार ठहराया जाता है उनकी व्याख्या निम्नलिखित है:
    • ब्रिटिश द्वारा सेना में भर्ती के लिए सिखों को हिंदुओं और मुसलमानों की तुलना में अधिक पसंद किया जाता था. ये सभी ग्रामीण समुदाय जीवन यापन के लिए कृषि के अलावा सेना की नौकरियों पर निर्भर करते थे. नतीजतन, इन समुदायों से पंजाबी हिंदुओं की बड़ी संख्या खुद को सिख के रूप में बदलने लगी ताकि सेना की भर्ती में अधिमान्य उपचार प्राप्त हो. क्योंकि सिख और पंजाबी हिन्दुओं के रिवाज, विश्वास और ऐतिहासिक दृष्टिकोण ज्यादातर समान थे या निकट रूप से संबंधित थे, इस परिवर्तन ने किसी भी सामाजिक चुनौती को उत्पन्न नहीं किया;
    • सिख धर्म के अन्दर 20वीं शताब्दी के आरम्भ में सुधार आंदोलनों ने विवाह प्रथाओं को सरलीकृत किया जिससे फसल खराब हो जाने के अलावा ग्रामीण ऋणग्रस्तता का एक प्रमुख कारक समाप्त होने लगा. इस कारण से खेती की पृष्ठभूमि वाले कई ग्रामीण हिन्दू भी इस व्यापक समस्या की एक प्रतिक्रिया स्वरूप सिक्ख धर्म की ओर आकर्षित होने लगे. 1900 का पंजाब भूमि विभाजन अधिनियम को भी औपनिवेशिक सरकार द्वारा इसी उद्देश्य से बनाया गया था ताकि उधारदाताओं द्वारा जो आम तौर पर बनिया और खत्री पृष्ठभूमि होते थे इन ग्रामीण समुदायों की ज़मीन के समायोजन को रोका जा सके, क्योंकि यह समुदाय भारतीय सेना की रीढ़ की हड्डी था;
    • 1881 की जनगणना के बाद सिंह सभा और आर्य समाज आन्दोलन के बीच शास्त्रार्थ सम्बन्धी विवाद के कारण हिंदू और सिख पहचान का आम ध्रुवीकरण. 1881 से पहले, सिखों के बीच अलगाववादी चेतना बहुत मजबूत नहीं थी या अच्छी तरह से स्पष्ट नहीं थी. 1881 की जनगणना के अनुसार पंजाब की जनसंख्या का केवल 13% सिख के रूप में निर्वाचित हुआ और सिख पृष्ठभूमि के कई समूहों ने खुद को हिंदू बना लिया.
    विवाह

    कठोर अंतर्विवाही
    सैनी, कुछ दशक पहले तक सख्ती से अंतर्विवाही थे, लेकिन सजाती प्रजनन को रोकने के लिए उनके पास सख्त नियम थे. आम तौर पर नियमानुसार ऐसी स्थिति में शादी नहीं हो सकती अगर:]
    यहां तक कि अगर लड़के की ओर से चार में से एक भी गोत लड़की के पक्ष के चार गोत से मिलता हो. दोनों पक्षों से ये चार गोत होते थे: 1) पैतृक दादा 2) पैतृक दादी 3) नाना और 4) नानी. यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि चचेरे या ममेरे रिश्तों के बीच विवाह असंभव था;
    दोनों पक्षों में उपरोक्त किसी भी गोत के एक ना होने पर भी अगर दोनों ही परिवारों का गांव एक हो . इस स्थिति में प्राचीन सम्मान प्रणाली के अनुसार इस मामले में, लड़के और लड़की को एक दूसरे को पारस्परिक रूप से भाई-बहन समझा जाना चाहिए.
    1950 के दशक से पहले, सैनी दुल्हन और दूल्हे के लिए एक दूसरे को शादी से पहले देखना संभव नहीं था. शादी का निर्णय सख्ती से दोनों परिवारों के वृद्ध लोगों द्वारा लिया जाता था. दूल्हा और दुल्हन शादी के बाद ही एक दूसरे को देखते थे. अगर दूल्हे ने अपनी होने वाली दुल्हन को छिपकर देखने की कोशिश की तो अधिकांश मामलों में या हर मामले में यह सगाई लड़की के परिवार द्वारा तोड़ दी जाती है.
    हालांकि 1950 के दशक के बाद से, इस समुदाय के भीतर अब ऐसी व्यवस्था नहीं है यहां तक कि नियोजित शादियों में भी.
    [तलाक
    ऐतिहासिक दृष्टि से
    1955 के हिंदू विवाह अधिनियम से पहले, सैनी व्यक्ति के लिए अपनी पत्नी को तलाक देना संभव नहीं था. तलाक न के बराबर था और इसके खिलाफ बहुत मजबूत सामुदायिक निषेध था और कलंक था. बेवफाई के कारण के अलावा, एक सैनी के लिए यह संभव नहीं था कि वह बिना बहिष्कार का सामना किये और अपने पूरे परिवार के लिए कलंक मोल लेते हुए अपनी पत्नी को छोड़ दे.
    लेकिन अगर एक सैनी आदमी अपनी पत्नी को बेवफाई या उसके भाग जाने पर उसे त्याग दे तो सुलह किसी भी परिस्थिति में संभव नहीं था. ऐसी स्थिति में परिणाम अक्सर गंभीर होते थे. इस प्रकार से आरोपित महिला को अपने अधिकांश जीवन बहिष्कार को झेलना पड़ता है. इस प्रकार से त्याग दी गई महिला से समुदाय का कोई भी अन्य आदमी शादी नहीं करेगा. कई मामलों में आरोपित के ऊपर सम्मान हत्या की काफी संभावना रहती है. हालांकि, सभी मामलों में गांव के बुजुर्गों द्वारा किसी भी महिला को दुर्भावनापूर्ण ससुराल वालों द्वारा गलत तरीके से आरोपित करने से रोकने के लिए हस्तक्षेप किया जाता था. ऐसे मामलों में पति का परिवार भी कलंक से बच नहीं पाता था. अतः इस तरह की स्थितियां बहुत कम ही सामने आतीं थीं, सिर्फ तभी जब कोई वास्तविक शिकायत होती.
    वर्तमान स्थिति
    हालांकि, सैनियों में वर्तमान में अब तलाक की संभावना होती है और इससे कलंक और बहिष्कार को कोई खतरा नहीं रहता.

    विधवा पुनर्विवाह
    ऐतिहासिक दृष्टि से, सैनियों के बीच विधवा पुनर्विवाह की संभावना, क्षत्रिय या राजपूत के किसी भी अन्य समुदाय की तरह नहीं थी.
    लेविरैट विवाह संभव नहीं
    सामान्यतया, लेविरैट शादी, या करेवा, सैनी में संभव नहीं था, और बड़े भाई की पत्नी को मां समान माना जाता था, और छोटे भाई की पत्नी को बेटी के समान समझा जाता है. यह रिश्ता भाई की मौत के बाद भी जारी रहता था. एक विवाहित पुरुष सदस्य की मृत्यु के बाद उसकी विधवा के देखभाल करने की जिम्मेदारी सामूहिक होती थी जिसे मृतक का भाई या चचेरे भाई (यदि कोई भाई जीवित नहीं है तो) द्वारा साझा किया जाता था. सैनी के स्वामित्व वाले गांवों में सघन सामाजिक ताने-बाने के कारण, विधवा और उसके बच्चों की देखभाल सामूहिक रूप से गांव के सामुदायिक भाईचारे (जिसे पंजाबी में शरीका कहा जाता था) द्वारा होती थी.
    वर्तमान स्थिति
    वर्तमान सैनी समुदाय में विधवा पुनर्विवाह के खिलाफ निषेध, खासकर अगर वे कम उम्र में विधवा हो गई हैं तो अब नहीं है या अब लगभग गायब हो गया है यहां तक की पंजाब में भी. हालांकि, गांव आधारित समुदाय में अभी भी कुछ प्रतिरोध किया जा सकता है.

    विवाह अनुष्ठान
    परंपरागत रूप से, सैनियों का विवाह वैदिक समारोह द्वारा होता रहा है जिसे सनातनी परंपरा के ब्राह्मणों द्वारा करवाया जाता है. हालांकि, 20वीं सदी में कुछ हिंदू परिवार, आर्य समाज आधारित वैदिक अनुष्ठानों को अपनाने लगे हैं, और सिख सैनियों ने आनंद कारज अनुष्ठान का चयन शुरू कर दिया है.

    सैनी उप कुल
    पंजाबी सैनी समुदाय में कई उप कुल हैं.
    आम तौर पर सबसे आम हैं: अन्हे, बिम्ब (बिम्भ), बदवाल, बलोरिया, बंवैत (बनैत), बंगा, बसुता (बसोत्रा), बाउंसर, भेला, बोला, भोंडी (बोंडी), मुंध.चेर, चंदेल, चिलना, दौले (दोल्ल), दौरका, धक, धम्रैत, धनोटा (धनोत्रा), धौल, धेरी, धूरे, दुल्कू, दोकल, फराड, महेरू, मुंढ (मूंदड़ा) मंगर, मसुटा (मसोत्रा), मेहिंद्वान, गेहलेन (गहलोन/गिल), गहिर (गिहिर), गहुनिया (गहून/गहन), गिर्ण, गिद्दा, जदोरे, जप्रा, जगैत (जग्गी), जंगलिया, कल्याणी, कलोती (कलोतिया), कबेरवल (कबाड़वाल), खर्गल, खेरू, खुठे, कुहडा(कुहर), लोंगिया (लोंगिये),सागर, सहनान (शनन), सलारिया (सलेहरी), सूजी, ननुआ (ननुअन), नरु, पाबला, पवन, पम्मा (पम्मा/पामा), पंग्लिया, पंतालिया, पर्तोला, तम्बर (तुम्बर/तंवर/तोमर), थिंड, टौंक (टोंक/टांक/टौंक/टक), तोगर (तोगड़/टग्गर), उग्रे, वैद आदि.
    हरियाणा में आम तौर पर सबसे आम हैं: बावल, बनैत, भरल, भुटरल, कच्छल, संदल (सन्डल), तोन्डवाल (टंडूवाल) आदि.
    नोट: कुछ सैनी उप कुल डोगरा और बागरी राजपूतों के साथ अतिछादन करता है. कुछ सैनी गुटों के नाम जो डोगरा के साथ अतिछादन करते हैं वे हैं: बडवाल, बलोरिया, बसुता, मसुता, धानोता, सलारिया, चंदेल, जगैत, वैद आदि. ऐतिहासिक रूप से क्षेत्रीय सगोत्र विवाह और सामाजिक भेद भी समुदाय के भीतर था. उदाहरण के लिए, होशियारपुर और जालंधर के सैनी इन जिलों से बाहर विवाह के लिए नहीं जाते थे और खुद को उच्च स्तरीय का मानते थे. लेकिन इस तरह के प्रतिबंध हाल के समय में अब ढीले पड़ चुके हैं और अंतर-जातीय विवाह के मामलों में बढ़ोतरी हुई है विशेष रूप से एनआरआई सैनी परिवारों के बीच.
    ]अन्य व्यावसायिक जातियों एवं नृजातीय जनजातियों से विभेदित सैनी जनजाति
    अराइन या रेइन से विभेदित सैनी
    इबेट्सन, औपनिवेशिक नृवंशविज्ञानशास्त्री भी गलती से अरेन या रायेन को सैनी समझ बैठते हैं.
    इबेट्सन लगता है व्यावसायिक समुदायों के साथ जातीय समुदायों में भ्रमित हो गए थे. भारतीय मानव विज्ञान सर्वेक्षण के अनुसार माली और अरेन, व्यावसायिक समुदाय हैं, जबकि सैनी एक भिन्न जातीय समुदाय नज़र आते हैं जिनकी उत्पत्ति एक ख़ास भौगोलिक स्थान और विशिष्ट समय पर हुई है जिसके साथ संयोजित है एक अद्वितीय ऐतिहासिक इतिहास जो उनकी पहचान को विशिष्ट बनाता है.

    माली (नव-सैनी) से विभेदित सैनी
    हरियाणा के दक्षिणी जिलों में और उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी 20वीं सदी में माली जाति के लोगों ने "सैनी" उपनाम का उपयोग शुरू कर दिया.]बहरहाल, यह पंजाब के यदुवंशी सैनियों वाला समुदाय नहीं है. यह इस तथ्य से प्रमाणित हुआ है कि 1881 की जनगणनापंजाब से बाहर सैनी समुदाय के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करती है और इबेट्सन जैसे औपनिवेशिक लेखकों के आक्षेप के बावजूद, सैनी और माली को अलग समुदाय मानती है. 1891 की मारवाड़ जनगणना रिपोर्ट ने भी राजपूताना में किसी 'सैनी' नाम के समुदाय को दर्ज नहीं किया है और केवल दो समूह को माली के रूप में दर्ज किया है. जिनका नाम है महूर माली और राजपूत माली जिसमें से बाद वाले को राजपूत उप-श्रेणी में शामिल किया गया है. राजपूत मालियों ने अपनी पहचान को 1930 में सैनी में बदल लिया लेकिन बाद की जनगणना में अन्य गैर राजपूत माली जैसे माहूर या मौर ने भी अपने उपनाम को 'सैनी' कर लिया.
    पंजाब के सैनियों ने ऐतिहासिक रूप से कभी भी माली समुदाय के साथ अंतर-विवाह नहीं किया (एक तथ्य जिसे इबेट्सन द्वारा भी स्वीकार किया गया और 1881 की जनगणना में विधिवत दर्ज किया गया), या विवाह के मामले में वे सैनी समुदाय से बाहर नहीं गए, और यह वर्जना आम तौर पर आज भी जारी है. दोनों समुदाय, सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक दृष्टि से भी अधिकांशतः भिन्न हैं.
    औपनिवेशिक विवरणों में स्वीकार किए गए विभेद '
    डेनजिन इबेट्सन के विवरण के अनुसार विभेद
    यहां तक कि औपनिवेशिक जनगणना अधिकारियों ने जो सैनियों और मालियों को मिला देने के इच्छुक थे ताकि जटिल सैनी इतिहास और जाति पर आसानी से नियंत्रण कर सकें, उन्हें भी मजबूर हो कर इस टिप्पणी के साथ इस तथ्य को स्वीकार करना पड़ा: "... कि उसी वर्ग की कुछ उच्च जातियां (सैनी)) उनके साथ (माली) शादी नहीं करेंगी.
    लेकिन इस उभयवृत्ति के बावजूद औपनिवेशिक खातों में यह दर्ज है कि माली के विपरीत:
    • सैनियों ने मथुरा से राजपूत मूल का दावा किया.
    सैनियों को एक "योद्धा जाति " के रूप में सूचीबद्ध किया गया था.
    • सैनी, आम खेती के अलावा केवल बागवानी खेती किया करते थे.
    • सैनी भू-स्वामी थे और कभी-कभी पूरे गांव का स्वामित्व रखते थे.
    • सैनी, माली के साथ शादी नहीं करते थे, और कहा कि, सिवाय शायद बिजनौर के (अब उत्तर प्रदेश में), उन्हें उत्तर पश्चिम प्रांत में माली पूरी तरह से अलग माना जाता था (एक तथ्य जिसके चलते उन्होंने 1881 की जनगणना में सैनी और माली को अलग समुदाय के रूप में दर्ज किया). इस तथ्य पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि बिजनौर के इन तथाकथित सैनियों को 1901 की जनगणना में सैनी से बाहर रखा गया जब 1881 की जनगणना में हुई गलतियों और त्रुटिपूर्ण प्रस्तुतियों को अधिकारियों द्वारा पकड़ा गया.
    • सैनी, पंजाब के बाहर नहीं पाए गए.
    जोगेंद्र नाथ भट्टाचार्य द्वारा 19वीं सदी की एक अन्य कृति में भी सैनी समूह को माली से पृथक समझा गया है.
    एडवर्ड बाल्फोर के विवरण के अनुसार मतभेद
    1885 में एक अन्य औपनिवेशिक विद्वान, एडवर्ड बाल्फोर ने स्पष्ट रूप से सैनी को माली से अलग रूप में स्वीकार किया है. जो बात अधिक दिलचस्प है वह यह है कि एडवर्ड बाल्फोर ने पाया कि सब्जी की खेती के अलावा सैनी काफी हद तक गन्ने की खेती में शामिल थे जबकि माली केवल बागवानी करते थे. एडवर्ड बाल्फोर का विवरण इस प्रकार आगे और पुष्टि प्रदान करता है, इबेट्सन के विवरण में निहित विरोधाभास के अलावा, कि सैनियों को औपनिवेशिक काल में मालियों से पूरी तरह से अलग समझा जाता था.
    ईएएच ब्लंट के अनुसार मतभेद
    ईएएच ब्लंट, जिन्होंने उत्तरी भारत की जाति व्यवस्था पर एक मौलिक काम का सृजन किया, सैनी को माली, बागबान, कच्ची और मुराओ से पूरी तरह से अलग समूह में रखा. उन्होंने सैनी को भू-स्वामी माना जबकि बाद के समूहों को मुख्यतः बागवानी, फूल और सब्जियों की खेती करने वाले बताया. ब्लंट के काम का महत्व इस बात में निहित है कि उनके पास अपने से पूर्व के सभी औपनिवेशिक लेखकों जैसे इबेट्सन, रिसले, हंटर आदि के कार्यों को देखने और उनकी विसंगतियों का पुनरीक्षण करने का लाभ था.
    उत्तर उपनिवेशवादी विद्वानों द्वारा स्वीकार किया गया विभेद
    पंजाब में माली और सैनी समुदाय के बीच अंतर के बारे में कोई भ्रम नहीं है और सैनी को कहीं भी माली समुदाय के रूप में नहीं समझा जाता है. लेकिन हरियाणा में, कई माली जनजातियों ने अब 'सैनी' उपनाम को अपना लिया है जिससे इस राज्य में और इसके दक्षिण की ओर सैनी की पहचान को उलझन में डाल दिया है. हरियाणा के माली और सैनी के बीच स्पष्ट अंतर बताते हुए 1994 में प्रकाशित एक एंथ्रोपोलॉजीकल सर्वे ऑफ़ इंडिया की रिपोर्ट निम्नलिखित तथ्य उद्धृत करती है:

    "उनमें से कई बड़े जमींदारों हैं. अतीत के दौरान इसके अलावा, माली समुदाय शाही दरबारों में कार्य करता था और मुख्य रूप से बागवानी का काम करता था, लेकिन सैनी दूसरों की सेवा नहीं करते थे; बल्कि वे स्वतंत्र किसान थे. अरेन, रेन, बागबान, माली और मलिआर ऐसे व्यक्तियों के निकाय का द्योतक हैं जो जाति के बजाय व्यवसाय को दर्शाते हैं...1) माली अन्य जातियों से भोजन स्वीकार करने में उतने कट्टर नहीं हैं जितने सैनी; 2) माली औरतों को खेतिहर मजदूर के रूप में श्रम करते देखा जा सकता था जो सैनी में नहीं होता था; 3) शैक्षिक रूप से, व्यवसाय के आधार पर और आर्थिक रूप से सैनी की स्थति माली से कहीं बेहतर थी, और 4) सैनी भू-स्वामी हैं और माली की तुलना में विशाल भूमि के स्वामी हैं."

    सैनी भवन ( चंडीगढ़ )

    सन १९८० में कुछ सैनी भाइयों द्वारा सैनी भवन के निर्माण के वास्ते चंडीगढ़ प्रशासन के सामने प्रस्ताव रखा गया तांकि उन्हें भवन निर्माण के लिए एक प्लाट अलाट हो सके . उनके प्रयासों द्वारा चंडीगढ़ प्रशासन ने उन्हें सेक्टर -२४ में उन्हें प्लाट नंबर १ और २ दे दिया जहाँ पर सैनी भवन का निर्माण किया गया .

    सैनी भवन के निर्माण में कई साल लगे और सन १९८५ में यह भवन बन कर तैयार हो गया और इसका उदघाटन सरदार दिलबाग सिंह द्वारा किया गया जोकि उस समय पंजाब सरकार में कृषि मंत्री थे. उनके साथ उस समय सहयोग देने वालों में मदन गोपाल जी और सरदार धर्म सिंह जी थे .
    अब इसमें तीन बड़े हाल , बीस कमरे जिसमे से दस कमरे ए. सी. हैं, चार कमरों में कूलर हैं और ६ कमरे साधारण हैं .यहाँ पर एक लाइब्रेरी भी हैं जिसमे कई पुस्तकें और हर रोज के कई अखबार मिलते है. इसके अलावा भवन में गरीबों और जरूरत मंद लोगों के लिए एक कंप्यूटर सेंटर ,मरीजों के लिए बिल्कुल फ्री होमोपैथिक डिस्पेंसरी और एक कांफ्रेंस हाल भी है .

    सैनी भवन में बने हाल कमरों में शादी- ब्याह के ही नहीं बल्कि कई तरह के सास्कृतिक और धार्मिक आयोजन भी होते रहते हैं . बाहर से आने वाले लोग यहाँ बने कमरों को अपनी सुविधानुसार ठहरने और बाकी इंतजाम के वास्ते बुक करवा सकते हैं . इस तरह सैनी भवन की सभी सुविधाओं का चंडीगढ़ में रहने वाले ही नहीं बल्कि बाहर के लोग भी लाभ उठा सकते हैं . यह भवन हमारे माली समाज के लिए एक गौरव मई धरोहर है जिसका लाभ हमारी आने वाली पीड़ियाँ रहती दुनिया तक उठा सकेंगी ..

    सैनी भवन में इस समय करीब ४५०० सदस्य हैं . इस भवन में नार्दर्न इंडिया सैनी कल्चरल सोसाइटी का सेंटर भी है जिसके प्रैसीडैंट चरणजीत सिंह चन्नी ( एक्स एम. पी. और एम. एल. ए.) , सीनीयर वाइस प्रधान श्री मेहर सिंह तहसीलदार ( सेवानिवृत) , जर्नल सकत्तर श्री प्यारा सिंह , फाइनैंस सेक्टरी श्री मल्कियत सिंह हैं .

    मैनेजर परमजीत सिंह और राजेश कुमार की मदद से सैनी भवन के सदस्य और उनके परिवार के लोग कभी भी इस भवन का इस्तेमाल कर सकते हैं

    कल्चरल सोसाइटी सैनी भाइयों की गतिविधियों और संदेशों को यहाँ से छपने वाली पत्रिका " सैनी दुनिया " के द्वारा जन- जन तक पहुंचाती है .पत्रिका के सम्पादक एस. अमन प्रतीक सिंह है .और सरदूल सिंह अब्रावन हैं . सैनी दुनिया के भारत के पंजाब , हरियाणा , हिमाचल प्रदेश , राजस्थान ,दिल्ली , मध्य प्रदेश , उत्तर प्रदेश , बिहार आदि राज्यों से ही नहीं अपितु बाहर के लगभग ११ देशों इंग्लैण्ड , कनाडा ,आस्ट्रेलिया आदि से भी तकरीबन १३५० आजीवन सदस्य हैं जहाँ सैनी भाई निवास करते हैं . इस पत्रिका को प्राइमरी , मिडल , हाई , और सीनीयर सेकंडरी स्कूलों और सोशल एजूकेशन सेंटर द्वारा भी जोड़ा गया हैं . सैनी दुनिया डी. पी. आई. ( स ) पंजाब चंडीगढ़ के हुक्म नंबर , ४६६९ , एडीटर तारीख १९.१०.१९८९ के अनुसार स्कूलों के लिए प्रमाणित है .


    'सैनी भवन "

    पता : नार्दर्न इंडिया सैनी कल्चरल सोसाइटी , सैनी भवन , प्लाट नंबर १-२ , सैक्टर २४- सी , चंडीगढ़ १६००२३ ,फोन नंबर (०१७२- २७१५२००)

    ई मेल : sainibhawan@rediffmail.com

    सुविधाएं : ठहरने का इंतजाम ,हाल की बुकिंग ,पार्टी का इंतजाम , शादी -ब्याह के लिए बुकिंग का इंतजाम - (0172-2715200 )

    शुक्रवार, 18 मई 2018

      परमार अग्नि वंशीय हैं। श्री राधागोविन्द सिंह शुभकरनपुरा टीकमगढ़ के अनुसार तीन गोत्र हैं-वशिष्ठ, अत्रि व शाकृति। इनकी शाखा वाजसनेयी, सूत्र पारसकर, ग्रहसूत्र और वेद यजुर्वेद है। परमारों की कुलदेवी दीप देवी है। देवता महाकाल, उपदेवी सिचियाय माता है। पुरोहित मिश्र, सगरं धनुष, पीतध्वज और बजरंग चिन्ह है। उनका घोड़ा नीला, सिलहट हाथी और क्षिप्रा नदी है। नक्कारा विजयबाण, भैरव कालभैरव तथा ढोल रणभेरी और रत्न नीलम है।

      परमारों का निवास आबू पर्वत बताया गया है। क्षत्रिय वंश भास्कर के अनुसार परमारों की कुलदेवी सिचियाय माता है, जिसे राजस्थान में गजानन माता कहते हैं। परमारों के गोत्र कहीं गार्ग्य, शौनक व कहीं कौडिल्य मिलते है। उत्पति- परमार क्षत्रिय वंश के प्रसिद्ध 36 कुलों में से एक हैं। ये स्वयं को चार प्रसिद्ध अग्नि वंशियों में से मानते हैं। परमारों के वशिष्ठ के अग्निकुण्ड से उत्पन्न होने की कथा परमारों के प्राचीनतम शिलालेखों और ऐतिहासिक काव्यों में वर्णित है। डा. दशरथ शर्मा लिखते हैं कि ‘हम किसी अन्य वंश को अग्निवंश माने या न माने परन्तु परमारों को अग्निवंशी मानने में कोई आपत्ति नहीं है।’ सिन्धुराज के दरबारी कवि पद्मगुप्त ने उनके अग्निवंशी होना और आबू पर्वत पर वशिष्ठ मुनि के अग्निकुण्ड से उत्पन्न होना लिखा है। बसन्तगढ़, उदयपुर, नागपुर, अथूणा, हरथल, देलवाड़ा, पारनारायण, अंचलेश्वर आदि के परमार शिलालेखों में भी उत्पति के कथन की पुष्टि होती है। अबुलफजल ने आइने अकबरी में परमारों की उत्पति आबू पर्वत पर महाबाहु ऋषि द्वारा बौद्धों से तंग आने पर अग्निकुण्ड से होना लिखा है।

      प्रश्न उठता है कि अग्निवंश क्या है? इस प्रश्न पर भी विचार, मनन जरूरी है ? इतिहास बताता है कि ब्राह्मणवाद के विरुद्ध जब बौद्ध धर्म का विस्तार हुआ तो क्षत्रिय और वैश्य भी बौद्ध धर्मावलम्बी बन गये। फलतः वैदिक परम्परा नष्ट हो गई। कुमारिल भट्ट (ई.700) व आदि शंकराचार्य के प्रयासों से वैदिक धर्म में पुनः लोगों को दीक्षित किया जाने लगा। जिनमें अनेकों क्षत्रिय भी पुनः दीक्षित किये गये। ब्राह्मणों के मुखिया ऋषियों ने वैदिक धर्म की रक्षा के लिए क्षत्रियों को पुनः वैदिक धर्म में लाने का प्रयास किया, जिसमें उन्हें सफलता मिली और चार क्षत्रिय कुलों को पुनः वैदिक धर्म में दीक्षित करने में सफल हुए। आबू पर्वत पर यज्ञ करके बौद्ध धर्म से वैदिक धर्म में उनका समावेश किया गया। यही अग्निवंश का स्वरूप है।

      जिसमें परमार वंश अग्नि वंशी कहलाने लगा। छत्रपुर की प्राचीन वंशावली वंश भास्कर का वृतान्त, अबुलफजल का विवरण भी बौद्ध उत्पात के विरुद्ध बौद्ध धर्म से वैदिक धर्म में पुनः लौट आने व यज्ञ की पुष्टि करते हैं। आबू पर्वत पर यह ऐतिहासिक कार्य 6 ठी व 7 वीं सदी में हुआ था। आज भी आबूगिरी पर यज्ञ स्थान मौजूद है।

      मालवा के प्रथम परमार शासक-मालवा पर परमारों का ईसा से पूर्व में शासन था। हरनामसिंह चौहान के अनुसार परमार मौर्यवंश की शाखा है। राजस्थान के जाने-माने विद्वान ठाकुर सुरजनसिंह झाझड़ की भी यही मान्यता है। ओझा के अनुसार सम्राट अशोक के बाद मौर्यों की एक शाखा का मालवा पर शासन था। भविष्य पुराण भी मालवा पर परमारों के शासन का उल्लेख करता है।

      मालवा का प्रसिद्ध राजा गंधर्वसेन था। उसके तीन पुत्रों में से शंख छोटी आयु में ही मर गया। भर्तृहरि जी गद्दी त्याग कर योगी बन गये। तब तीसरा पुत्र विक्रमादित्य गद्दी पर बैठा। भर्तृहरि गोपीचन्द के शिष्य बन गये जिन्होंने श्रृंगार शतक, नीति शतक और वैराग्य शतक लिखे हैं। गन्धर्वसेन का राज्य विस्तार दक्षिणी राजस्थान तक माना जाता है। भर्तृहरि के राज्य छोड़ने के बाद विक्रमादित्य मालवा के शासक बने। राजा विक्रमादित्य बहुत ही शक्तिशाली सम्राट थे। उन्होंने शकों को परास्त कर देश का उद्धार किया। वह एक वीर व गुणवान शासक थे जिनका दरबार नवरत्नों से सुशोभित था। ये थे-कालीदास, अमरसिंह, वराहमिहीर, धन्वतरी वररूचि, शकु, घटस्कर्पर, क्षपणक व बेताल भट्ट। उनके शासन में ज्योतिष विज्ञान प्रगति के उच्च शिखर पर था। वैधशाला का कार्य वराहमिहीर देखते थे। उज्जैन तत्कालीन ग्रीनवीच थी जहां से प्रथम मध्यान्ह की गणना की जाती थी। सम्राट विक्रमादित्य का प्रभुत्व सारा विश्व मानता था। काल की गणना विक्रमी संवत् से की जाती थी। विक्रमादित्य के वंशजों ने 550 ईस्वी तक मालवा पर शासन किया।

      लेखक : Devisingh, Mandawa

      क्रमशः.............



    • भाग-1 से आगे ..............राजस्थान का प्रथम परमार वंश -राजस्थान में ई 400 के करीब राजस्थान के नागवंशों के राज्यों पर परमारों ने अधिकार कर लिया था। इन नाग वंशों के पतन पर आसिया चारण पालपोत ने लिखा है-
    • परमारा रुंधाविधा नाग गया पाताळ।
      हमै बिचारा आसिया, किणरी झुमै चाळ।।
      मालवा के परमार-मालव भू-भाग पर परमार वंश का शासन काफी समय तक रहा है। भोज के पूर्वजों में पहला राजा उपेन्द्र का नाम मिलता है जिसे कृष्णराज भी कहते हैं। इसने अपने बाहुबल से एक बड़े स्वतंत्र राज्य की स्थापना की थी। इनके बाद बैरीसिंह मालवा के शासक बने। बैरीसिंह का दूसरा पुत्र अबरसिंह था जिसने डूंगरपुर-बांसवाडा को जीतकर अपना राज्य स्थापित किया। इसी वंश में बैरीसिंह द्वितीय हुआ जिसने गौड़ प्रदेश में बगावत के समय हूणों से मुकाबला किया और विजय प्राप्त की। इसी वंश में जन्में इतिहास प्रसिद्ध राजा भोज विद्यानुरागी व विद्वान राजा थे।

      अजमेर में प्रवेश-मालवा पर मुसलमानों का अधिकार होने के बाद परमारों की एक शाखा अजमेर सीमा में प्रवेश कर गई। पीसांगन से प्राप्त 1475 ईस्वी के लेख से इसका पता चलता है। राघव की राणी के इस लेख में क्रमशः हमीर हरपाल व राघव का नाम आता है। महिपाल मेवाड़ के महाराणा कुम्भा की सेवा में था।

      आबू के परमार-आबू के परमारों की राजधानी चन्द्रावती थी जो एक समृद्ध नगरी थी। इस वंश के अधीन सिरोही के आस-पास के इलाके पालनपुर मारवाड़ दांता राज्यों के इलाके थे। आबू के परमारों के शिलालेख से व ताम्रपत्रों से ज्ञात होता है कि इनके मूल पुरुष का नाम धोमराज या धूम्रराज था। संवत 1218 के किराडू से प्राप्त शिलालेख में आरम्भ सिन्धुराज से है। आबू का सिन्धुराज मालवे के सिन्धुराज से अलग था। यह प्रतापी राजा था जो मारवाड़ में हुआ था। सिन्धुराज का पुत्र उत्पलराज किराडू छोड़कर ओसियां नामक गांव में जा बसा जहाँ सचियाय माता उस पर प्रसन्न हुई। उत्पलराज ने ओसियां माता का मंदिर बनवाया।

      जालोर के परमार-राजस्थान के गुजरात से सटे जिले जालोर में ग्यारहवीं-बारहवीं सदी में परमारों का राज्य था। परमारों ने ही जालोर के प्रसिद्ध किलों का निर्माण कराया था। जालोर के परमार संभवतः आबू के परमारों की ही शाखा थे। एक शिलालेख के अनुसार जालोर में वंश वाक्यतिराज से प्रारम्भ हुआ है। जिसका काल 950 ई. के करीब था।

      किराडू के परमार-किराडू के परमार वंशीय आज भी यहाँ राजस्थान के बाड़मेर संभाग में स्थित है। परमारों का वहां ग्यारहवीं तथा बारहवीं सदी से राज्य था। ई. 1080 के करीब सोछराज को कृष्णराज द्वितीय का पुत्र था ने यहाँ अपना राज्य स्थापित किया। यह दानी था और गुजरात के शासक सिन्धुराज जयसिंह का सामंत था। इसके पुत्र सोमेश्वर ने वि. 1218 में राजा जज्जक को परास्त परास्त कर जैसलमेर के तनोट और जोधपुर के नोसर किलों पर अधिकार प्राप्त किया।

      दांता के परमार-ये अपने को मालवा के परमार राजा उद्यातिराज के पुत्र जगदेव के वंशज मानते है।

      लेखक : Kunwar Devisingh, Mandawa

      क्रमशः.............
      भाग-2 से आगे ....Parmar Rajvansh ka itihas
      जगनेर के बिजौलिया के परमार-मालवा पर मुस्लिम अधिकार के बाद परमारों चारों ओर फैल गये। इनकी ही एक शाखा जगनेर आगरा के पास चली गई। उनके ही वंशज अशोक मेवाड़ आये। जिनको महाराणा सांगा ने बिजौलिया की जागीर दी।

      जगदीशपुर और डुमराँव का पंवार वंश-भोज के एक वंशज मालवा पर मुस्लिम अधिकार के बाद परिवार सहित गयाजी पिण्डदान को गये। वापस आते समय इन्होंने शाहाबाद जिला बिहार के एक हिस्से पर कब्जा कर लिया। बादशाह शाहजहाँ ने इनके वंशज नारायण मल्ल को भोजपुर जिला जागीर में दे दिया। इन्होंने जगदीशपुर को अपनी राजधानी बनाया। बाद में इन्होंने आरा जिला में डुमराँव को अपना केन्द्र बनाया। इसी वंश में 1857 की क्रांति के नायक वीर कुंवरसिंह का जन्म हुआ, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों को नाकों चने चबवा दिये थे।

      देवास और धार के परमार-मालवा पर मुस्लिम अधिकार के समय परमारों की एक शाखा जो जगनेर (आगरा के पास) चली गई जहाँ से मेवाड़ गये अशोक के छोटे भाई शम्भूसिंह ने पूना और अहमदनगर के पास के इलाकों पर कब्जा कर लिया किन्तु पड़ौसी शासक ने उसे धोखे से मार दिया। इन्हीं के वंशजों ने शिवाजी के पुत्र राजाराम को मराठा साम्राज्य के विस्तार व सुरक्षा में उल्लेखनीय योगदान दिया, जिससे प्रसन्न हो छत्रपति राजाराम ने इन्हें विश्वासराव व सेना सप्त सहस्त्रों की उच्च उपाधियाँ प्रदान की। इन्हीं के वंशज देवास व धार के स्वामी बने।

      उमट परमार-इस वंश के राजगढ़ व नरसिंहगढ़ पहले एक ही संयुक्त राज्य थे। यही कारण है आजतक इन दोनों राज्यों के भाग एक दूसरे में अवस्थित है। यहाँ के शासक परमार वंश के आदि पुरुष राजा परमार के मुंगराव के वंशज है।

      संखाला पंवार (परमार)-सांखला परमारों की एक शाखा है। वि.सं. 1318 के शिलालेख में शब्द शंखकुल का प्रयोग किया गया है। किराडू के परमार शासक बाहड़ का पुत्र बाघ जयचंद पड़िहार के हाथों मारा गया। बाघ के पुत्र वैरसी ने ओसियां की सचियाय माता से वर प्राप्त कर पिता की मौत का बदला लिया। नैणसी लिखते है कि माता ने उसे दर्शन दिए और शंख प्रदान किया, तभी से वैरसी के वंशज सांखला कहलाने लगे। इसने जयचंद पड़िहार के मून्धियाड़ के किले को तुड़वा कर रुण में किला बनवाया तब से ये राणा कहलाने लगे।

      सोढा परमार-किराडू के शासक बाहड़ के पुत्र सोढा से परमारों की सोढा शाखा चली। सोढाजी सिंध में सूमरों के पास गये जिन्होंने सोढाजी को ऊमरकोट (पाकिस्तान) से 14 कोस दूर राताकोर दिया। सोढा के सातवें वंशधर धारवरीस के दो पुत्र आसराव और दुर्जनशाल थे। आसराव ने जोधपुर में पारकर पर अधिकार किया। दुर्जनशाल ऊमरकोट की तरफ गया। उसकी चौथी पीढ़ी के हमीर को जाम तमायची ने ऊमरकोट दिया। अंग्रेजों के समय राणा रतनसिंह सोढा ने अंग्रेजों का डटकर मुकाबला किया पर उन्हें पकड़कर फांसी पर चढ़ा दिया गया।

      वराह परमार-ये मारवाड़ के प्रसिद्ध परमार शासक धरणी वराह के वंशज थे जिनका राज्य पूरे मारवाड़ और उससे भी बाहर तक फैला हुआ था। उसके नौकोट किले थे। इसीलिए मारवाड़ नौ कुटी कहलाई। मारवाड़ के बाहर उसका राज्य संभार प्रदेश, जैसलमेर तथा बीकानेर के बहुत से भूभाग पर था। वर्तमान जैसलमेर प्रदेश पर उनके वंशज वराह परमारों चुन्ना परमारों व लोदा परमारों के राज्य थे। मंगलराव भाटी ने पंजाब से आकर विक्रम 700 के करीब इनसे यह भूभाग छीन कर अपने अधीन कर लिया। वराह शाखा के परमार वर्तमान पटियाला जिले में है।
      लेखक : Kunwar Devisingh, Mandawa
      परमारों का विस्तार-उज्जैन छूटने के बाद परमारों की एक शाखा आगरा और बुलंदशहर में आई। उन्नाव के परमार मानते है कि बादशाह अकबर ने उन्हें इस प्रदेश में जागीर उनकी सेवाओं के उपलक्ष में दी। यहाँ से वे गौरखपुर में फैले। कानपुर, आजमगढ़ और गाजीपुर में परमार उज्जैनियां कहलाते हैं जो यहाँ बिहार से आये। इनके मुखिया राजा डुमराँव है। उज्जैनियां कहलाने से यह सिद्ध होता है कि वे उज्जैन से ही आये थे। ललितपुर और बांदा में भी परमार मिलते है। मध्यप्रदेश में इनके दो राज्य थे। नरसिंहगढ़ और राजगढ़। मध्यप्रदेश में परमारों की बहुसंख्या होने के कारण वह क्षेत्र बहुलता के कारण परमार पट्टी कहलाता है। गुजरात में इनका राज्य मामूली था। राजस्थान में जोधपुर (मारवाड़) तथा उदयपुर (मेवाड़) जैसलमेर, बीकानेर और धौलपुर इलाकों में हैं। उदयपुर में बिजौलिया ठिकाना सोला के उमरावों में से था। धौलपुर में ये बड़ी संख्या में है। जिन्द और रोहतक में वराह परमार हैं जो जैसलमेर पर भाटियों के अधिकार कर लेने पर पंजाब में जा बसे थे। मेरठ, फर्रुखाबाद, मुरादाबाद, शाहजहांपुर, बाँदा, ललितपुर, फैजाबाद व बिहार में भी ये बड़ी संख्या में स्थित हैं।

      आजादी के बाद-पंवारों में अनेकों कुशल राजनीतिज्ञ हुए हैं जिन्होंने भारत के नवनिर्माण में सहयोग प्रदान किया है। राजमाता टिहरी गढ़वाल लोकसभा की सदस्या रही। उनके पुत्र मानवेन्द्र शाह उनके बाद संसद सदस्य चुने गये। मानवेन्द्रशाह इटली में भारत के राजदूत भी रहे हैं। उनके भाई शार्दूल विक्रमशाह भी राजदूत रह चुके हैं। नरसिंहगढ़ के महाराजा भानुप्रतापसिंह लोकसभा के सदस्य व बाद में इन्दिरा गांधी के मन्त्रीमण्डल के सदस्य बने। आपके पुत्र मध्यप्रदेश विधान सभा के सदस्य रहे। बिजौलिया राजस्थान के राव केसरीसिंह राजस्थान विधानसभा के सन् 1952 में विधायक चुने गये। 

      पाकिस्तान में सोढ़ा ऊमराकोट क्षेत्र में है। ऊमरकोट के राणा चन्द्रसिंह पाकिस्तान की संसद के सदस्य चुने गये तथा भुट्टों के मन्त्रीमण्डल में एकमात्र गैर मुस्लिम मन्त्री रहे।
      सन् 1971 के भारत पाक युद्ध के समय विशेषकर लक्ष्मणसिंह सोढ़ा का सहयोग विशेष उल्लेखनीय है। इनके सहयोग से ही भारतीय सेना जयपुर नरेश ले. कर्नल भवानीसिंह के नेतृत्व में घाघरापार और वीराबा क्षेत्रों में दुश्मन को परास्त कर अधिकार कर सकी।

      स्पष्ट है परमार वंश में राजा भोज जैसे दानी कुंवरसिंह जैसा बहादुर योद्धा और लक्ष्मणसिंह सोढ़ा जैसे राष्ट्रधर्म के पुजारियों ने जन्म लिया। यह वीर वंश है जिसने अनेकों योद्धाओं को जन्म दिया, पाला और देश को समर्पित कर दिया। मुहणोत नैनसी के अनुसार परमारों की 35 मुख्य शाखायें मानी जाती हैं। विभिन्न विद्वानों में इस पर मतभेद भी है परन्तु वर्तमान में परमार वंश की कुल ज्ञात शाखायें 184 हैं। 

      लेखक : देवीसिंह, मंडावा
    सांखला पंवार (परमार)- 
    सांखला परमारों की एक शाखा है। वि.सं. 1318 के शिलालेख में शब्द शंखकुल का प्रयोग किया गया है। किराडू के परमार शासक बाहड़ का पुत्र बाघ जयचंद पड़िहार के हाथों मारा गया। बाघ के पुत्र वैरसी ने ओसियां की सचियाय माता से वर प्राप्त कर पिता की मौत का बदला लिया। नैणसी लिखते है कि माता ने उसे दर्शन दिए और शंख प्रदान किया, तभी से वैरसी के वंशज सांखला कहलाने लगे। इसने जयचंद पड़िहार के मून्धियाड़ के किले को तुड़वा कर रुण में किला बनवाया तब से ये राणा कहलाने लगे। 
    कई लोग हमसे सांखला राजपूतो के इतिहास के बारे में पूछ चुके है आज हम उसी बारे में बताने जा रे है -
    सांखला परमारों की एक शाखा है| वि.सं. 1381 के प्राप्त शिलालेख में शंखकुल शब्द का प्रयोग किया गया है| धरणीवराह पुराने किराडू के राजा थे| धरणीवराह के अधीन मारवाड़ का षेत्र भी था| धरणीवराह के पुत्र वाहड़ के दो पुत्र सोढ और वाघ थे| सोढ के वंशज सोढा कहलाये| वाघ जैचंद पड़ियार (परिहार) के हाथों युद्ध में मारे गए| वाघ के पुत्र अपने पिता की मौत का बदला लेने की दृढ़ प्रतिज्ञ थे| वाघ ओसियां सचियाय माता के मंदिर गए| वहाँ सचियाय माता ने प्रसान्न होकर उन्हें दर्शन दिए तथा वरदान के रूप में शंख प्रदान किया| उन्होंने अपने पिता की मृत्यु का बदला लिया तभी से ये बैरसी के वंशज शंख प्राप्ति से सांखला कहलाने लगे|
    इन्होने जैचंद के मूघिताड़ के किले को तुड़वाकर रुण में किला बनवाया| तब से ये राणा कहलाने लगे| वाघ के पुत्र राजपाल थे तथा राजपाल के तीन पुत्र छोहिल, महिपाल और तेजपाल थे|
    मेवाड़ के महाराणा मोकल ने इन परमारों में विवाह किया| महाराणा कुम्भा इनके दोहिते थे|
    पूर्व में महिपाल के पोते उदगा प्रथ्विराज चौहान के सामंतो में थे| राजपाल के पुत्र महिपाल के बेटे रायसी ने रुण आकर जांगलू के चौहानों को हराकर अपना राज्य कायम किया| ये सांखले रूणचे सांखला कहलाये|
    राजस्थान के पंचवीरो में गिना जाने वाला जांगलू के हरभूजी सांखला बड़े सिद्ध पुरुष हुए| जोधपुर के संस्थापक राव जोधा का जब मंडोर पर अधिकार समाप्त हो गया और वह मेवाड़ की सेना से गुरिला यद कर रहे थे तोह जंगल में हरभूजी सांखला से भेंट हुई| हरभूजी ने जोधाजी को राज्य पुनह स्थापित होने का आशीर्वाद दिया तथा राज्य मेवाड़ से जांगलू तक फैलाने की भविष्यवाणी की जो सत्य हुई| वीर और बुद्धिमान नापाजी की महाराणा कुम्भा के यः बड़ी प्रतिष्टा थी| जोधाजी के पुत्र तथा बीकानेर राज्य के संथापक बीकाजी का वि.सं. 1522 में नापाजी ने ही जांगलू पर अधिकार था| इसलिए बीकाजी इनका बहुत सम्मान करते थे| नापाजी के वंशज नापा सांखला कहलाए|