गुरुवार, 13 अक्तूबर 2016

माली समाज का इतिहास

माली समाज हिन्दू धर्म की एक जाति है जो पारम्परिक बागवानी का कार्य करते थे | माली समाज को हम फूलमाली भी कहते है क्यूंकि ये प्रारम्भ से ही फूलो का कारोबार करते है माली समाज मुख्यतः उत्तरी भारत ,पश्चिमी भारत , महाराष्ट्र और नेपाल के तराई इलाको में रहते है माली समुदाय को राजपूत माली के नाम से जाना जाता है |
माली शब्द की उत्पत्ति संस्कृत शब्द मला से लिया गया है | माली समाज को उनके द्वारा किये जाने वाले अलग अलग कार्यो के अनुसार बांटा गया है
  1. देउली माली  :- देवताओं की पूजा करने वाले माली
  2. बागवान  :-  बागवानी करने वाले माली
  3. धन्न्कुट या कुटा माली :-  चावल की फसल बोने वाले माली
  4. सासिया माली  :- घास काटने और बेचने वाले माली
  5. जदोंन माली  :- सब्जी उगाने और बेचने वाले माली
  6. फूल माली  :- देवताओं के लिए फूल उगाने वाले माली
  7. गोला माली :- गंगा और हरिद्वार के पास रहने वाले माली
  8. माथुर माली
  9. रोहतकी माली
  10. दिवाली माली
  11. महार माली
  12. वर माली
  13. लोढ़ माली
  14. जीरा माली
  15. घास माली
माली समुदाय में कई अंतर्विवाही माली है | सभी माले समुदाय का एक ही उत्पत्ति , इतिहास , रीती रिवाज ,सामाजिक स्थान नहीं है लेकिन माली समाज को  राजस्थान के  मारवार के राजपूत माली को 1891 की रिपोर्ट से प्रारम्भ बताया जाता है
माली समुदाय को 1930 के ब्रिटिश राज के दौरान “सैनी ” उपनाम दिया गया जो आज तक स्थापित है

मंगलवार, 4 अक्तूबर 2016

परमार वंश उत्पति

_________________________परमार वंश उत्पत्ति_____________________________
===================परमार वंश के गोत्र-प्रवरादि===================
वंश – अग्निवंश
कुल – सोढा परमार
गोत्र – वशिष्ठ
प्रवर – वशिष्ठ, अत्रि ,साकृति
वेद – यजुर्वेद
उपवेद – धनुर्वेद
शाखा – वाजसनयि
प्रथम राजधानी – उज्जेन (मालवा)
कुलदेवी – सच्चियाय माता
इष्टदेव – सूर्यदेव महादेव
तलवार – रणतरे
ढाल – हरियण
निशान – केसरी सिंह
ध्वजा – पीला रंग
गढ – आबू
शस्त्र – भाला
गाय – कवली
वृक्ष – कदम्ब,पीपल
नदी – सफरा (क्षिप्रा)
पाघ – पंचरंगी
राजयोगी – भर्तहरी
संत – जाम्भोजी
पक्षी – मयूर
प्रमुख गादी – धार नगरी
परमार वंश मध्यकालीन भारत का एक राजवंश था। परमार गोत्र सुर्यवंशी राजपूतों में आता है। इस राजवंश का अधिकार धार और उज्जयिनी राज्यों तक था। ये ९वीं शताब्दी से १४वीं शताब्दी तक शासन करते रहे।
====परिचय=============================
परमार एक राजवंश का नाम है, जो मध्ययुग के प्रारंभिक काल में महत्वपूर्ण हुआ। चारण कथाओं में इसका उल्लेख राजपूत जाति के एक गोत्र रूप में मिलता है। परमार सिंधुराज के दरबारी कवि पद्मगुप्त परिमल ने अपनी पुस्तक 'नवसाहसांकचरित' में एक कथा का वर्णन किया है। ऋषि वशिष्ठ ने ऋषि विश्वामित्र के विरुद्ध युद्ध में सहायता प्राप्त करने के लिये भाबू पर्वत के अग्निकुंड से एक वीर पुरुष का निर्माण किया जिनके पूर्वज सुर्यवंशी क्षत्रिय थे । इस कारण सुर्यवंशी उज्जयिनी क्षत्रिय भी बुलाय ज। ते है। इस वीर पुरुष का नाम परमार रखा गया, जो इस वंश का संस्थापक हुआ और उसी के नाम पर वंश का नाम पड़ा। परमार के अभिलेखों में बाद को भी इस कहानी का पुनरुल्लेख हुआ है। इससे कुछ लोग यों समझने लगे कि परमारों का मूल निवासस्थान आबू पर्वत पर था, जहाँ से वे पड़ोस के देशों में जा जाकर बस गए। किंतु इस वंश के एक प्राचीन अभिलेख से यह पता चलता है कि परमार दक्षिण के राष्ट्रकूटों के उत्तराधिकारी थे।
परमार परिवार की मुख्य शाखा नवीं शताब्दी के प्रारंभिक काल से मालव में धारा को राजधानी बनाकर राज्य करती थी और इसका प्राचीनतम ज्ञात सदस्य उपेंद्र कृष्णराज था। इस वंश के प्रारंभिक शासक दक्षिण के राष्ट्रकूटों के सामंत थे। राष्ट्रकूटों के पतन के बाद सिंपाक द्वितीय के नेतृत्व में यह परिवार स्वतंत्र हो गया। सिपाक द्वितीय का पुत्र वाक्पति मुंज, जो 10वीं शताब्दी के अंतिम चतुर्थांश में हुआ, अपने परिवार की महानता का संस्थापक था। उसने केवल अपनी स्थिति ही सुदृढ़ नहीं की वरन्‌ दक्षिण राजपूताना का भी एक भाग जीत लिया और वहाँ महत्वपूर्ण पदों पर अपने वंश के राजकुमारों को नियुक्त कर दिया। उसका भतीजा भोज, जिसने सन्‌ 5000 से 1055 तक राज्य किया और जो सर्वतोमुखी प्रतिभा का शासक था, मध्युगीन सर्वश्रेष्ठ शासकों में गिना जाता था। भोज ने अपने समय के चौलुभ्य, चंदेल, कालचूरी और चालुक्य इत्यादि सभी शक्तिशाली राज्यों से युद्ध किया। बहुत बड़ी संख्या में विद्वान्‌ इसके दरबार में दयापूर्ण आश्रय पाकर रहते थे। वह स्वयं भी महान्‌ लेखक था और इसने विभिन्न विषयों पर अनेक पुस्तकें लिखी थीं, ऐसा माना जाता है। उसने अपने राज्य के विभिन्न भागों में बड़ी संख्या में मंदिर बनवाए।
भोज की मृत्यु के पश्चात्‌ चोलुक्य कर्ण और कर्णाटों ने मालव को जीत लिया, किंतु भोज के एक संबंधी उदयादित्य ने शत्रुओं को बुरी तरह पराजित करके अपना प्रभुत्व पुन: स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। उदयादित्य ने मध्यप्रदेश के उदयपुर नामक स्थान में नीलकंठ शिव के विशाल मंदिर का निर्माण कराया था। उदयादित्य का पुत्र जगद्देव बहुत प्रतिष्ठित सम्राट् था। वह मृत्यु के बहुत काल बाद तक पश्चिमी भारत के लोगों में अपनी गौरवपूर्ण उपलब्धियों के लिय प्रसिद्ध रहा। मालव में परमार वंश के अंत अलाउद्दीन खिलजी द्वारा 1305 ई. में कर दिया गया।
परमार वंश की एक शाखा आबू पर्वत पर चंद्रावती को राजधानी बनाकर, 10वीं शताब्दी के अंत में 13वीं शताब्दी के अंत तक राज्य करती रही। इस वंश की दूसरी शाखा वगद (वर्तमान बाँसवाड़ा) और डूंगरपुर रियासतों में उट्ठतुक बाँसवाड़ा राज्य में वर्त्तमान अर्थुना की राजधानी पर 10वीं शताब्दी के मध्यकाल से 12वीं शताब्दी के मध्यकाल तक शासन करती रही। वंश की दो शाखाएँ और ज्ञात हैं। एक ने जालोर में, दूसरी ने बिनमाल में 10वीं शताब्दी के अंतिम भाग से 12वीं शताब्दी के अंतिम भाग तक राज्य किया।
==========================राजा============================
उपेन्द्र (800 – 818)
वैरीसिंह प्रथम (818 – 843)
सियक प्रथम (843 – 893)
वाकपति (893 – 918)
वैरीसिंह द्वितीय (918 – 948)
सियक द्वितीय (948 – 974)
वाकपतिराज (974 – 995)
सिंधुराज(995 – 1010)
भोज प्रथम (1010 – 1055),
समरांगण सूत्रधार के रचयिताजयसिंह प्रथम
(1055 – 1060)
उदयादित्य (1060 – 1087)
लक्ष्मणदेव (1087 – 1097)
नरवर्मन (1097 – 1134)
यशोवर्मन (1134 – 1142)
जयवर्मन प्रथम (1142 – 1160)
विंध्यवर्मन (1160 – 1193)
सुभातवर्मन (1193 – 1210)
अर्जुनवर्मन I (1210 – 1218)
देवपाल (1218 – 1239)
जयतुगीदेव (1239 – 1256)
जयवर्मन द्वितीय (1256 – 1269)
जयसिंह द्वितीय (1269 – 1274)
अर्जुनवर्मन द्वितीय (1274 – 1283)
भोज द्वितीय (1283 – ?)
महालकदेव (? – 1305)
संजीव सिंह परमार (1305 - 1327)
-परमार वंश के दो महान सम्राट----
मित्रो आज हम किसी से भी पुछते है कि राजा विक्रमादित्य और राजा भोज की प्रतिमाएँ क्यों नहीं हैं?
उनके म्यूजियम उनके स्मारक क्यों नहीं है ?
जब हम कहते हैं राजनेता गलत है पर राजनेताओं के अंध भक्त दुहाई देते हैं कि वो बहुत पहले थे ऐसा कहा जाता है,
लेकिन यह गलत है चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य और महाराजा भोज अगर ना होते तो हमारा आज नहीं होता।
मित्रो राजा विक्रमादित्य और राजा भोज की प्रतिमाएँ बनाई जाए।आज देश में ऐसे नेताओं की प्रतिमा है जो कि उस काबिल भी नहीं है।
और राजा महाराजा की बात करे तो महाराणा प्रताप शिवाजी महाराज भी महानतम यौद्धाओं में हैं,उनकी प्रतिमाएँ है,हम ने उनका तो सम्मान कर दिया पर भारतीय इतिहास के दो स्तंभ राजा विक्रमादित्य और राजा भोज जिनके उपर देश टिका हुआ है हम ने उन्हीं को भुला दिया।
======शूरवीर सम्राट विक्रमादित्य=====
अंग्रेज और वामपंथी इतिहासकार उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य को एतिहासिक शासक न मानकर एक मिथक मानते हैं।
जबकि कल्हण की राजतरंगनी,कालिदास,नेपाल की वंशावलिया और अरब लेखक,अलबरूनी उन्हें वास्तविक महापुरुष मानते हैं।विक्रमादित्य के बारे में प्राचीन अरब साहित्य में वर्णन मिलता है।
उनके समय शको ने देश के बड़े भू भाग पर कब्जा जमा लिया था।विक्रम ने शको को भारत से मार भगाया और अपना राज्य अरब देशो तक फैला दिया था। उनके नाम पर विक्रम सम्वत चलाया गया। विक्रमादित्य ईसा मसीह के समकालीन थे.विक्रमादित्य के समय ज्योतिषाचार्य मिहिर, महान कवि कालिदास थे।
राजा विक्रम उनकी वीरता, उदारता, दया, क्षमा आदि गुणों की अनेक गाथाएं भारतीय साहित्य में भरी पड़ी हैं।
इनके पिता का नाम गन्धर्वसेन था एवं प्रसिद्ध योगी भर्तहरी इनके भाई थे।
विक्रमादित्य के इतिहास को अंग्रेजों ने जान-बूझकर तोड़ा और भ्रमित किया और उसे एक मिथ‍कीय चरित्र बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, क्योंकि विक्रमादित्य उस काल में महान व्यक्तित्व और शक्ति का प्रतीक थे,जबकि अंग्रेजों को यह सिद्ध करना जरूरी था कि ईसा मसीह के काल में दुनिया अज्ञानता में जी रही थी। दरअसल, विक्रमादित्य का शासन अरब और मिस्र तक फैला था और संपूर्ण धरती के लोग उनके नाम से परिचित थे। विक्रमादित्य अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे जिनके दरबार में नवरत्न रहते थे। इनमें कालिदास भी थे। कहा जाता है कि विक्रमादित्य बड़े पराक्रमी थे और उन्होंने शकों को परास्त किया था।
यह निर्विवाद सत्य है कि सम्राट विक्रमादित्य भारतीय इतिहास के सर्वश्रेष्ठ शासक थे।
==हिन्दू हृदय सम्राट परमार कुलभूषण मालवा नरेश सम्राट महाराजा भोज ==
महाराजा भोज के जीवन में हिन्दुत्व की तेजस्विता रोम-रोम से प्रकट हुई ,इनके चरित्र और गाथाओं का स्मरण गौरवशाली हिंदुत्व का दर्शन कराता है।
महाराजा भोज इतिहास प्रसिद्ध मुंजराज के भतीजे व सिंधुराज के पुत्र थे । उनका जन्म सन् 980 में महाराजा विक्रमादित्य की नगरी उज्जैनी में हुआ।राजा भोज चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य के वंशज थे।पन्द्रह वर्ष की छोटी आयु में उनका राज्य अभिषेक मालवा के राजसिंहासन पर हुआ।राजा भोज ने ग्यारहवीं शताब्दी में धारानगरी (धार) को ही नही अपितु समस्त मालवा और भारतवर्ष को अपने जन्म और कर्म से गौरवान्वित किया।
महाप्रतापी राजा भोज के पराक्रम के कारण उनके शासन काल में भारत पर साम्राज्य स्थापित करने का दुस्साहस कोई नहीं कर सका.राजा भोज ने भोपाल से 25 किलोमीटर दूर भोजपूर शहर में विश्व के सबसे बडे शिवलिंग का निर्माण कराया जो आज भोजेश्रवर के नाम से प्रसिद्ध है जिसकी उंचाई 22 फीट है । राजा भोज ने छोटे बडे लाखों मंदिर बनवाये , उन्होंने हजारों तालाब बनवाये , सैकडों नगर बसाये,कई दुर्ग बनवाये और अनेकों विद्यालय बनवाये।
राजा भोज ने ही भारत को नई पहचान दिलवाई उन्होंने ही इस देश का नाम हिंदू धर्म के नाम पर हिंदुस्तान रखा।राजा भोज ने कुशल शासक के रुप में जो हिन्दुओं को संगठित कर जो महान कार्य किया उससे राजा भोज के 250 वर्षो के बाद भी मुगल आक्रमणकारियों से हिंदुस्तान की रक्षा होती रही । राजा भोज भारतीय इतिहास के महानायक थे.
राजा भोज भारतीय इतिहास के एकमात्र ऐसे राजा हुए, जो शौर्य एवं पराक्रम के साथ धर्म विज्ञान साहित्य तथा कला
के ज्ञाता थे।राजा भोज ने माँ सरस्वती की आराधना व हिन्दू जीवन दर्शन एवं संस्कृत के प्रचार- प्रसार हेतु सन् 1034 में माँ सरस्वती मंदिर भोजशाला का निर्माण करवाया।माँ सरस्वती के अनन्य भक्त राजा भोज को माँ सरस्वती का अनेक बार साक्षातकार हुआ,
माँ सरस्वती की आराधना एवं उनके साधकों की साधना के लिए स्वंय की परिकल्पना एवं वास्तु से विश्व के सर्वश्रेष्ठ मंदिर का निर्माण धार में कराया गया जो आज भोजशाला के नाम से प्रसिद्ध है । उन्होंने भोजपाल (भोपाल) में भारत का सबसे बडा तालाब का निर्माण कराया जो आज भोजताल के नाम से प्रसिद्ध है.
** परमार ( पंवार ) क्षत्रियो की कुलदेवी **
सच्चियाय ( सच्चिवाय ) माता का भव्य मंदिर जोधपुर से लगभग ६० कि. मी. की दूरी पर ओसियॉ में स्थित है इसी लिये इनको ओसियॉ माता भी कहा जाता है , ओसियॉ पुरातत्विक महत्व का एक प्राचीन नगर है , ओसियॉ शहर कला का एक महत्वपूर्ण केन्द्र होने के साथ ही धार्मिक महत्व का क्षेत्र रहा है यहॉ पर ८ वीं १२ वीं शताब्दी के कालात्मक मंदिर ( ब्रह्मण एवं जैन ) और उत्कष्ट मूर्तियॉ विराजमान है , परमार क्षत्रियो के अलावा यह ओसवालो की भी कुलदेवी है , स्थानीय मान्यता के अनुसार इस नगरी का नाम पहले मेलपुरपट्टन था , बाद में यह उकेस के नाम से जाना गया फिर बाद में यह शब्द अपभ्रंश होकर ओसियॉ हो गया , एक ढुण्ढिमल साधू के श्राप दिये जाने पर यह गॉव उजड गया था , उप्पलदेव परमार राजकुमार के द्वारा यह नगर पुन: बसाया गया था , उसने यहा ओसला लिया था अथवा शरण ली थी , इसी के कारण इस नगर का नाम ओसियॉ नाम पड गया था , लेखको के आधार पर भीनमाल के परमार राजकुमार के द्वारा ओसियॉ नगर बसाने का उल्लेखनीय मिलता है ।।
भीनमाल में राजा भीमसेन पंवार राज्य करते थे उनके दो पुत्र हुये बडा उपलदा और छोटा सुरसुदरू राजा भीमसेन ने अपने छोटे पुत्र को उत्तराधिकारी घोषित कर बडे पुत्र उपलदे को देश निकाला दे दिया था , तब राजकुमार उपलदे ने इसी जगह ओसियॉ में शरण ली थी जो ये जगह उजडी हुई पडी थी , वहा पर एक माता जी का स्थान था जहा पर माँ के चरण चिन्ह के निशान एक चबूतरे पर स्थित थे , उसने आकर माँ को प्रणाम किया और रात्रि होने पर वहा सो गया , तब श्री चामुण्डा देवी जी ने प्रगट होकर पूछा कि तू कौन है , इस पर उपलदे ने कहा कि में पंवार राजपूत हू यहा पर नगर बसाना चाहता हूँ , तब देवी जी ने कहा कि सूर्य उदय होने पर जितनी दूर तक तुम अपना घोडा घुमाओगे शाम तक उस जगह मकान बन जायेंगे दिन उगने पर उसने अपना घोडा ४८ कोस तक घुमाया और घर बसने लगे मगर रात्री मे सभी घर फिर ध्वस्त होने लगे , तब राजकुमार ने देवी से कहा कि माँ ये क्या हो रहा है माँ ने कहा कि तू पहले मेरा मंदिर बना तब तेरा शहर निर्माण करना राजकुमार बोला माँ मेरे पास तो कुछ भी नही है में तेरा मंदिर कैसे निर्माण करवाऊ माँ ने तभी गढा हुआ धन पानी सभी सामग्री बताई , मंदिर का निर्माण होने पर उपलदे ने देवी से पूछा कि मूर्ति सोना चॉदी ,या पत्थर की कराऊ तब देवी जी ने कहा कि तुम शांत रहना में स्वयं पृथ्वी से प्रगट होऊँगी , माता जब तीसरे दिन धरती से पृगट हुई तब आकाश में से जोर से गर्जना हुई मानो भूकम्प आ गया हो , देवी ने राजकुमार से कहा था कि तुम चिल्लाना मत मगर राजकुमार डर की बजह से चिल्लाना लगा तब माता धरती में से आधी निकली और आधी जमीन के अंदर ही रह गयी इस पर माता राजकुमार पर कुपित हुई मगर माँ तो माँ होती है माता ने उसको मॉफ कर दिया , और मंदिर के सामनेमहल बनाकर रहने को कहा , राजकुमार बोला कि माँ मकान तो बन गये अब बस्ती कहा से लाऊँ तब माता ने कहा कि भीनमाल जाकर अपने भाई से बस्ती की मॉग कर तभी उपलदे ने अपने भाई से बस्ती देने को कहा तो उसने मना कर दिया दौनो भाइयो में युद्द होने लगा मगर माँ की कृपा से उपलदे का बालबाका भी नही हुआ उसने अपने भाई को पकड लिया , और उसी समय उसने भीनमाल का आधा पट्टा अपने कब्जे में कर लिया ,इसी प्रकार भीनमाल ने ओसियॉ नगर की स्थापना की जिसको ओसियॉ माता या सच्चियाय माता के नाम से माता का मंदिर जाना जाता है ।।
ओसियॉ के पहाडी पर अवस्थित मंदिर परिसर में सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रसिद्द सच्चियाय माता का मंदिर १२ वीं शताब्दी के आसपास बना यह भव्य और विशाल मंदिर महिषमर्दिनी ( दुर्गा) को समर्पित है , उपलब्ध साक्ष्यो से पता चलता है कि उस युग में जैन धर्मावलम्बी भी देवी चण्डिका अथवा महिषमर्दिनी की पूजा - अर्चना करने लगे थे, तथा उन्होने उसे प्रतिरक्षक देवी के रूप में स्वीकार किया था , परंतु उन्होने देवी के उग्र रूप या हिंसक के बजाय उसके ललित एवं शांत स्वरूप की पूजा अर्चना की , अत: उन्होने माँ चामुण्डा देवी के वजाय सच्चियाय माता ( सच्चिका माता ) नाम दिया था , सच्चियाय माता श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के ओसवाल समाज के साथ परमारों ( पंवारो ) सांखला , सोढा राजपूतो की ईष्टदेवी या कुलदेवी है , सच्चियाय माता के मंदिर के गर्भ गृह के बाहर की एक अभिलेख उत्तकीर्ण है जिसमें १२३४ ( ११७८ ई. ) का लेख जिसमें सच्चियाय माता मंदिर में चण्डिका , शीतला माता , सच्चियाय , क्षेमकरी , आदि देवियो और क्षेत्रपाल की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठापित किये जाने का उल्लेख हुआ है , ।।
** परमार वंश **
वंश - अग्निवंश
कुल - परमार
गोत्र- वशिष्ठ
प्रवर - तीन , वशिष्ठ , अत्रि , साकृति
वेद - यजुर्वेद
उपवेद - धनुर्वेद
शाखा - वाजसनयि
प्रथम राजधानी - उज्जैन ( मालवा )
कुलदेवी - सच्चियाय माता
ईष्टदेव - माण्डवराव (सूर्य )
महादेव - रणजूर महादेव
गायत्री- ब्रह्मगायत्री
भैरव - गोरा - भैरव
तलवार- रणतरे
ढाल - हरियण
निशान- केसरी सिंह
ध्वज - पीला रंग
गढ - आबू
शस्त्र- भालो
गाय- कवली गाय
वृक्ष- कदम्ब , पीपल
नदी - सफरा ( शिप्रा)
पक्षी - मयूर
पाधडी - पचरंगी
राजयोगी - भर्तृहरि
Source -- राजिस्थानी ग्रन्थागार
( राजिस्थान की कुलदेवियॉ )
कृप्या सभी लोग शेयर जरूर करें
** जय माता दी**

-

जगदेव परमार


जगो यहाँ पर जगदेवों की लगी है बाजी जान की।
अलबेलों ने लिखी खड़ग से गाथाएँ बलिदान की।॥

जगदेव परमार मालवा के राजा उदयादित्य के पुत्र थे। मालवा की राजधानी धारानगरी थी 
जो कालान्तर में उज्जैन नगर के नाम से प्रसिद्ध हुई। 
मालवा के परमार वंश में हुए राजा भर्तृहरि बाद में महान नाथ योगी (सन्त) बने,
 भर्तृहरि के छोटे भाई राजा वीर विक्रमादित्य बड़े न्यायकारी राजा हुये। 
विक्रम सम्वत इसी ने हुणों पर विजय के उपलक्ष में चलाया था। 
विद्याप्रेमी एवं वीर भोज भी मालवा के परमार राजा थे, जो स्वयं विद्वान थे। 
बारहवीं शताब्दी में इस प्रदेश ने एक ऐसा अनुपम रत्न प्रदान किया
 जिसने वीरता और त्याग के नये-नये कीर्तिमान स्थापित कर क्षात्र धर्म को पुनः गौरवान्वित किया। 
यह वीर थे जगदेव परमार। लोक गाथाओं में इन्हें वीर जगदेव पंवार के नाम से याद किया जाता है।

राजा उदयादित्य की दो पत्नियाँ थी। 
एक सोलंकी राजवंश की और दूसरी बाघेला राजवंश की। 
सोलंकी रानी के जगदेव नाम का पुत्र और बघेली रानी से 
दूसरा पुत्र रिणधवल था। राजकुमार जगदेव बड़ा थे। 
राजकुमार जगदेव साहसी योद्धा था 
और सेनापति के रूप में उसकी कीर्ति सारे देश में फैल गई थी।
 अपनी बाघेली रानी के प्रभाव से प्रभावित होकर
 उदयादित्य ने रिणधवल को युवराज चुना। 
अपनी सौतेली माता की ईर्ष्या के कारण जगदेव कष्टमय जीवन व्यतीत कर रहे थे।
 वह मालवा से चले गये और जीविका के लिए 
गुजरात में सिद्धराज जयसिंह के अधीन सैनिक सेवा स्वीकार की। 
वह अपनी वीरता और स्वामीभक्ति से बहुत ही अल्पकाल में अपने स्वामी के प्रिय हो गये। 
कुछ आसन्न संकट से सिद्धराज की सुरक्षा करने के लिए अपने जीवन को अर्पण किया। 
जगदेव परमार ने कंकाळी (देवी) के सामने अपना मस्तक काट कर अर्पित कर दिया था,
 जिससे देवी ने उसके बलिदान से प्रसन्न होकर उन्हें पुनर्जीवित कर दिया था। 
जगदेव ने यह बलिदान अपने स्वामी पर आए संकट के अवसर पर दिया था।
 जब राजा को उसके इस बलिदान का पता लगा तो उसने प्रसन्न होकर उनको एक बहुत बड़ी जागीर दी।
 और अपनी एक पुत्री का विवाह जगदेव के साथ कर दिया।

कुछ समय बाद यह सूचना पाकर कि सिद्धराज मालवा पर आक्रमण करने की तैयारियाँ कर रहा है, 
उसने अपना पद त्याग कर अपनी जन्मभूमि की रक्षा करने के लिए धारा नगरी चला आया।
 उसके पिता ने उसका बड़े स्नेह से स्वागत किया
 और रिणधवल के स्थान पर जगदेव को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
 उदयादित्य की मृत्यु के पश्चात् जगदेव मालवा के सिंहासन पर बैठे।

राजस्थान की लोक गाथाओं में वह जगदेव पंवार के नाम से जाने जाते है 
जबकि मालवा में लक्ष्मदेव के नाम से प्रसिद्ध हुये। 
जगदेव वि.सं. ११४३ (ई.स. १०८६) के लगभग मालवा के राजा बने।
 वह एक बड़ी सेना लेकर दिग्विजय के लिए निकले।
 बंगाल के पाल राजा पर आक्रमण कर वहाँ से बहुत से हाथी लूटकर लाये।
 इसके बाद चेदी प्रदेश के कलचुरियों पर आक्रमण करने के लिए बढे। 
उस समय वहाँ यश:कर्ण का राज्य था।
 यश:कर्ण साहसी योद्धा था 
और चम्पारण विजय कर कीर्ति प्राप्त की थी। 
किन्तु वह मालवा सेना के आक्रमण के सामने ठहर नहीं सका।
 जगदेव (लक्ष्मदेव) ने उसके राज्य को पद दलित किया और 
उसकी राजधानी त्रिपुरी को लूटा। 
उसने अङ्ग और कलिंग राज्य की सेनाओं को परास्त किया।
जगदेव ने दक्षिण भारतीय राज्यों पर भी आक्रमण किए थे। 
लेकिन दक्षिणी राज्यो में आपस में मैत्री होने से वह सफल न हो सके। 
मालवा के दक्षिण में चोलों का राज्य था। दोनों राज्यों के बीच बहुत कम दूरी रह गई थी। 
इस क्षेत्र पर अधिकार करने के लिए दोनों ही राज्य लालायित थे 
अतः दोनों में युद्ध होना अवश्यंभावी हो गया। जगदेव का चोल राजा कुलोतुंग प्रथम से संघर्ष हुआ। 
युद्ध में चोल पराजित हुए।

गुजरात के सीमान्त पहाड़ी क्षेत्रों में बर्बर पहाड़ी जनजातियाँ निवास करती थी
 जो सन्त, पुण्यात्मा ऋषियों को निरन्तर दुःख देते थे।
 जगदेव ने उन बर्बर जातियों को दण्डित किया। 
कांगड़ा जनपद के कीरों से युद्ध कर उन्हें परास्त किया। 
उसके समय में मुसलमानों ने मालवा पर चढ़ाई की। 
मुस्लिम सेना को कुछ प्रारम्भिक विजय प्राप्त हुई।
 किन्तु अंततः वे जगदेव द्वारा पीछे ढकेल दिए गए।
 जगदेव (लक्ष्मदेव) एक वीर योद्धा और निपुण सेनानायक थे। 
पश्चिमी भारत के लोग अब भी जगदेव के नाम का 
उसकी उच्च सामरिक दक्षता व बलिदान के लिए हमेशा स्मरण करते हैं।
 निश्चय ही वे ग्यारहवीं शती के अन्तिम चरण का एक उतुंग व्यक्ति थे। 
एक उल्का की तरह वह थोड़े समय के लिए मध्यभारत के क्षितिज में चमके 
और अपने पीछे चिरकीर्ति छोड़ कर लोप हो गये। 
शासक के रूप में वह अत्यन्त दयालु, प्रजा वत्सल और न्यायकारी राजा थे।
 सम्राट विक्रमादित्य और राजा भोज की उदात्त परम्पराएं इन्होंने पुनः शुरु की।
 वेष बदल कर ये जनता की वास्तविक स्थिति का पता लगाने जाया करते थे। 
प्रजा की भलाई के अनेक कार्य किये। इनका शासन काल लगभग वि.सं. ११५२ (ई.स. १०९५) तक रहा।

-

जगदेव परमार

Jagdev Parmar History in Hindi, Jagdev Panwar Story

जगो यहाँ पर जगदेवों की लगी है बाजी जान की।
अलबेलों ने लिखी खड़ग से गाथाएँ बलिदान की।॥


जगदेव परमार मालवा के राजा उदयादित्य के पुत्र थे। मालवा की राजधानी धारानगरी थी जो कालान्तर में उज्जैन नगर के नाम से प्रसिद्ध हुई। मालवा के परमार वंश में हुए राजा भर्तृहरि बाद में महान नाथ योगी (सन्त) बने, भर्तृहरि के छोटे भाई राजा वीर विक्रमादित्य बड़े न्यायकारी राजा हुये। विक्रम सम्वत इसी ने हुणों पर विजय के उपलक्ष में चलाया था। विद्याप्रेमी एवं वीर भोज भी मालवा के परमार राजा थे, जो स्वयं विद्वान थे। बारहवीं शताब्दी में इस प्रदेश ने एक ऐसा अनुपम रत्न प्रदान किया जिसने वीरता और त्याग के नये-नये कीर्तिमान स्थापित कर क्षात्र धर्म को पुनः गौरवान्वित किया। यह वीर थे जगदेव परमार। लोक गाथाओं में इन्हें वीर जगदेव पंवार के नाम से याद किया जाता है।

राजा उदयादित्य की दो पत्नियाँ थी। एक सोलंकी राजवंश की और दूसरी बाघेला राजवंश की। सोलंकी रानी के जगदेव नाम का पुत्र और बघेली रानी से दूसरा पुत्र रिणधवल था। राजकुमार जगदेव बड़ा थे। राजकुमार जगदेव साहसी योद्धा था और सेनापति के रूप में उसकी कीर्ति सारे देश में फैल गई थी। अपनी बाघेली रानी के प्रभाव से प्रभावित होकर उदयादित्य ने रिणधवल को युवराज चुना। अपनी सौतेली माता की ईर्ष्या के कारण जगदेव कष्टमय जीवन व्यतीत कर रहे थे। वह मालवा से चले गये और जीविका के लिए गुजरात में सिद्धराज जयसिंह के अधीन सैनिक सेवा स्वीकार की। वह अपनी वीरता और स्वामीभक्ति से बहुत ही अल्पकाल में अपने स्वामी के प्रिय हो गये। कुछ आसन्न संकट से सिद्धराज की सुरक्षा करने के लिए अपने जीवन को अर्पण किया। जगदेव परमार ने कंकाळी (देवी) के सामने अपना मस्तक काट कर अर्पित कर दिया था, जिससे देवी ने उसके बलिदान से प्रसन्न होकर उन्हें पुनर्जीवित कर दिया था। जगदेव ने यह बलिदान अपने स्वामी पर आए संकट के अवसर पर दिया था। जब राजा को उसके इस बलिदान का पता लगा तो उसने प्रसन्न होकर उनको एक बहुत बड़ी जागीर दी। और अपनी एक पुत्री का विवाह जगदेव के साथ कर दिया।

कुछ समय बाद यह सूचना पाकर कि सिद्धराज मालवा पर आक्रमण करने की तैयारियाँ कर रहा है, उसने अपना पद त्याग कर अपनी जन्मभूमि की रक्षा करने के लिए धारा नगरी चला आया। उसके पिता ने उसका बड़े स्नेह से स्वागत किया और रिणधवल के स्थान पर जगदेव को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। उदयादित्य की मृत्यु के पश्चात् जगदेव मालवा के सिंहासन पर बैठे।

राजस्थान की लोक गाथाओं में वह जगदेव पंवार के नाम से जाने जाते है जबकि मालवा में लक्ष्मदेव के नाम से प्रसिद्ध हुये। जगदेव वि.सं. ११४३ (ई.स. १०८६) के लगभग मालवा के राजा बने। वह एक बड़ी सेना लेकर दिग्विजय के लिए निकले। बंगाल के पाल राजा पर आक्रमण कर वहाँ से बहुत से हाथी लूटकर लाये। इसके बाद चेदी प्रदेश के कलचुरियों पर आक्रमण करने के लिए बढे। उस समय वहाँ यश:कर्ण का राज्य था। यश:कर्ण साहसी योद्धा था और चम्पारण विजय कर कीर्ति प्राप्त की थी। किन्तु वह मालवा सेना के आक्रमण के सामने ठहर नहीं सका। जगदेव (लक्ष्मदेव) ने उसके राज्य को पद दलित किया और उसकी राजधानी त्रिपुरी को लूटा। उसने अङ्ग और कलिंग राज्य की सेनाओं को परास्त किया।
जगदेव ने दक्षिण भारतीय राज्यों पर भी आक्रमण किए थे। लेकिन दक्षिणी राज्यो में आपस में मैत्री होने से वह सफल न हो सके। मालवा के दक्षिण में चोलों का राज्य था। दोनों राज्यों के बीच बहुत कम दूरी रह गई थी। इस क्षेत्र पर अधिकार करने के लिए दोनों ही राज्य लालायित थे अतः दोनों में युद्ध होना अवश्यंभावी हो गया। जगदेव का चोल राजा कुलोतुंग प्रथम से संघर्ष हुआ। युद्ध में चोल पराजित हुए।

गुजरात के सीमान्त पहाड़ी क्षेत्रों में बर्बर पहाड़ी जनजातियाँ निवास करती थी जो सन्त, पुण्यात्मा ऋषियों को निरन्तर दुःख देते थे। जगदेव ने उन बर्बर जातियों को दण्डित किया। कांगड़ा जनपद के कीरों से युद्ध कर उन्हें परास्त किया। उसके समय में मुसलमानों ने मालवा पर चढ़ाई की। मुस्लिम सेना को कुछ प्रारम्भिक विजय प्राप्त हुई। किन्तु अंततः वे जगदेव द्वारा पीछे ढकेल दिए गए। जगदेव (लक्ष्मदेव) एक वीर योद्धा और निपुण सेनानायक थे। पश्चिमी भारत के लोग अब भी जगदेव के नाम का उसकी उच्च सामरिक दक्षता व बलिदान के लिए हमेशा स्मरण करते हैं। निश्चय ही वे ग्यारहवीं शती के अन्तिम चरण का एक उतुंग व्यक्ति थे। एक उल्का की तरह वह थोड़े समय के लिए मध्यभारत के क्षितिज में चमके और अपने पीछे चिरकीर्ति छोड़ कर लोप हो गये। शासक के रूप में वह अत्यन्त दयालु, प्रजा वत्सल और न्यायकारी राजा थे। सम्राट विक्रमादित्य और राजा भोज की उदात्त परम्पराएं इन्होंने पुनः शुरु की। वेष बदल कर ये जनता की वास्तविक स्थिति का पता लगाने जाया करते थे। प्रजा की भलाई के अनेक कार्य किये। इनका शासन काल लगभग वि.सं. ११५२ (ई.स. १०९५) तक रहा।

Parmar  (Agnivanshi)

Parmar (Pramara or Panwar) with 35 branches : Mori, Sodha,Sankhla, Khechar , Umra & Sumra , Kohil, Daddha, Maipawat, Khair, Bhuller, orgatia,Pachawara,Varah, KabaBeedh, Badhel, Dheek, Ujjjainia, Kaleja.....etc
Also known as Parwar or Pawar in Maharashtra, where the brances are: Pawar, Bagwe, Ichare, Renuse, Jagdhane, Rasal, Landage, Bane, Rokade, Chandane, Khairnar, Malwade, Wagaje. According to the myths their great-grand forefather, Parmar, was created out of fire by Inder Devta, the god of fire, at Mount Abu. It is said that as the newly created man had come out from fire saying “mar, mar” loudly, he came to be known as parmar, and Abu, Dhar, and Ujjain were assigned to him as a territory.
The 4 clans known as Agnikula were the Panwar, Chauhan, Parihar, and Chalukya or Solanki.
The Navasahasanka charitra of Padmaguta (11th cent AD) mentions the first of the Parmara clan : Vashishta created a hero from his agnikunda to get back the cow that Vishvamitra had taken from him. Vashishta then said: “you will become a lord of the kings called Paramara”. Here Paramara indicated killer of others. This hero’s son Upendra was succeeded by Vakpatiraj I. The copper-plates of Harsola, that are from 949 AD give the descent of Bappairaja (Vakpatiraja) from Akalavarsha. Akalavarsha was a famous Rashtrakuta king. A later inscription of Vakpatiraj II of the Parmara dynasty mentions that the king bore titles Amoghavarsha, Prathvivallabha and Shrivallabha. There are Rashtrakuta titles. This Vakpatiraj II was an uncle of famous Raja Bhoja.
The kings of Malwa or Ujain who reigned at Dhar and flourished from the ninth to the twelfth centuries were of the Panwar clan. The 7th and 9th kings of this dynasty rendered it famous. “Raja Munja, the 7th king (974-995), renowned for his lerarning and eloquence, was not only a patron of poets, but was himself a poet of small reputation, the anthologies including various works from his pen. He penetrated in a career of conquest as far as Godavari, but was finally defeated and executed there by the Chalukya king. His nephew, the famous Bhoja, ascended the throne of Dhara about 1018 andreigned gloriously for more than forty years. Like his uncle he cultivated with equal assiduity the arts of peace and war.
Though his fights with neighbouring powers, including one of the Muhamadan armies of Mahmud of Ghazni, are now forgotten, his fame as an enlightened patron of learning and a skilled author remains undimmed, and his name has become proverbial as that of the model king acoording to Hindu standard. Works on astronomy, architecture, the art of poetry and other subjects are attributed to him. About AD 1060 Bhoja was attacked and defeated by the confederate kings of Gujarat and Chedi, and the Panwar kingdom was reduced to a petty local dynasty until the 13th century. It was finally superseeded by the chiefs of the Tomara and Chauhan clans, who in their turn succumbed to the Muhamaddans in 1401” (V.A. Smith, Early History of India 3rd ed. p395). The city of Ujjain was at this time a centre of Indian intelectual life. Some celebrated astronomers made it their home, and it was adopted as the basis of the Hindu meridional system like Greenwhich in England. The Panwars were held to have ruled from nine castles over the Marustali or ‘Region of death’, the name given to the great dessert of Rajputana, which extends from Sind to the Aravalli mountains and from the great salt lakes to the skirting of Garah. The principal of these castles were Abu, Nundore, Umarkot, Arore, and Lodorva. Mr. Crooke states that the expulsion of the Panwars from Ujjain under their leader Mitra Sen is ascribed to the attack of the Muhamaddans under Shahab-ud-din Ghori about AD 1190. After this they spread to Madhya Pradesh and Maharashtra, where they are known as Pawar (Sivaji was a Puar and so is the Nimbhalkar tribe) Mr. Crooke (Tribes and castes) states: “The Khidmatia,Barwar or Chobdar are said to be an inferior branch of the Panwars, descended from a low-caste woman” . “The Panwars had the abit of keeping women of lower castes to a greater degree than the ordinary, and this has been found to be trait of other castes of mixed origin, and they are sometimes known as Dhakar, a name having the sense of illigitimacy”. (Russel, p339). In the Maratha rice coutry of Wainganga the Panwars have developed into 36 exogamous sections, bearing names of Rajput clans and of villages. Their titles are: Chaudhri (headman), Patlia (patel or chief officer of a village) and Sonwania.
Pawars are descendents of Parmar kings of Dhar. Some of Parmar kings were followers of Jainism, others that of Shaivism. Parmar is a big caste of Jains in Gujarat and it is also a famous clan of Oswals. Another Jain caste named Parwar is also descendent of Parmar kings. Osho Rajnish was from this community, that once was part of the Parwars.
The Parwar Jain caste is called “Paurpatta” in Sanskrit inscriptions. There are quite a few Sanskrit inscriptions in the Chanderi region that mention them from 11-12th century. It is likely that they are the same people involved in installing Jain images going back to Gupta period in that region, thus they are unlikley to be the descendants of Parmar kings. The Jain caste in Gujarat (Porwal or Porwad) is called “Pragvata” in Sanskrit. Most of the famous Jain temples in Gujarat (Mt. Abu, Ranakpur) were build by them. Their home is South Rajastan. The Parmar kings are called “Pragvata” in Sanskrit. Their original home too is Southern Rajasthan. Thus “Pragvata” must be the name of the region that is now Southern Rajasthan; and the Parmar Rajputs and the Porwal Jains of Rajasthan/Gujarat both take their name from this region. This is the region where Mount Abu is located.
At the Time of Alexander’s raid into India, he ran up against the Puru tribe. The leader’s name was taken as Porus. There is at least one other “ Porus’ referred to in the Greek accounts. The clan or a name is Puru, and now possibly found amoung the Jats as Puru, Pawar, Parmar, Paur, Por, Paurava or Pauria, or Paurya as a gotra name. However clan names and gotra names may not coincide, the gotra denoting a forefather with the personal name, which may not always be the tribe name
Mori = Branch of Panwar Rajputs. They claim descent from Chandragupta Maurya, but they are probably not realated to the Maurya emperors. In Maharashtra the septs are: More, Madhure, Devkate, Harphale, Dhyber, Marathe, Darekar, Devkar, Adavale.
This dynasty was founded by Chandragupta Mourya at Patliputra (Modern Patna in Bihar) in 317 B.C. Chandragupta was born in Mayurposag (Peacock tamer) community. Chandragupta became the first historical emperor of India. His empire included almost all of the south Asia. He defeated the Greek invaders. Chandragupta ruled for 22 years. After him his son Bindusar became the emperor. After him Ashok became the emperor. After the war of Kalinga, Ashok adopted Buddhism. After Ashok his grand son Samprati became the emperor and ruled from Ujjain while Dashrath, another grandson ruled from Patliputra. Brihdrath was the last emperor of this dynasty. He was killed by his General Pushyamitra Shung. He founded Pushy dynasty. Kharvel, king of Kaling attacked and killed Pushyamitra. The ‘Devak’ of Mores is feather of peacock. This is because of their ‘Mayurposag’ (Peacock tamer) origin.

Rajput Mali

From Wikipedia, the free encyclopedia
Rajput Mali is a distinctive ethnic group from Jodhpur, (Marwar), Rajasthan as well as a separate sub-category within the Rajput group.[1][2]
Origin
The ancestors of these Rajput Malis are said to be Rajput soldiers and feudals who lost battles with the Muslim emperors of Delhi like Sahabuddin Ghori, Kutubuddin, Shamsuddin, Gayasuddin, Alluadin, etc. After the fall of Prithviraj Chauhan (the last Hindu emperor of India) in Virkam Samvat 1249 (1192 AD).
When the Rajput soldiers of Prithviraj Chauhan fell in battles against Shahabuddin Ghori or Muhammad Ghori and the empires of Ajmer and Delhi were destroyed, some Rajputsbecame captive and could see no way of saving themselves except embracing Islam and they came to be known as Ghori Pathans. Some Rajputs were let off on the recommendation of a Royal gardner or Mali who represented captive Rajputs as Malis. In this way many Rajputs became Malis.[1][3]

Community Resolution of 1200 AD

When the storm had passed the community which had now been cut adrift from the main Rajput group, thought of devising ways and means of ensuring their purity of blood and guard against any vices that may creep in by adoption of new fold. Accordingly, they assembled on at Ajmer on Magh Shudi 7, Samvat 1257 (January 24, 1200, Monday) and passed a resolution that was to hold good for all time. The resolution was embodied in a "Parwana" and handed over to a Bhat (genealogist) who was a descendant of Mahakvai Chand Bardai.[3] The resolution reads as follows:
"When these people in order to get rid of danger to their life and property settled in cities and towns, and got an experience of this new fold, about its social status and condition after living with them for 3 or 4 years, they felt necessity of framing new social rules after reviewing their past and present condition. They would not tolerate many evils which they had found in that new fold in which they and their descendants were to spend their lives as they had their origin of pure Rajput blood, they assembled in Pushkar (Ajmer) under the presidentship of Mahadeo, son of Kushma Ajmera Chauhan on Magh Sudi 7th V.S. 1257 and framed some social rules and regulations for their fold and handed over that document to their Bhat in order to act accordingly."
The meeting unanimously passed 22 reforms for their caste, such as ban on the eating of meat, drinking of wine and killing of animals and widow remarriage etc.[1]

Adoption of new identity in 1930–1940

Rajput Mali community adopted the surname "Sainik Kshatriya" in the 1930-1940 decade during the colonial rule. Sainik Kshatiya Mali call themselves Independent community. They are neither part of Mali (actual) community nor Rajput Community. [4][5]

Clans

They have 13 clans as follows which have come out of Rajputs.:[3]

References

  1. Jump up to:a b c Action sociology and development , pp 198, Bindeshwar Pathak, Concept Publishing Company, 1992
  2. Jump up^ The Indian Journal of Social Work, pp 172, Tata Institute of Social Sciences, Tata Institute of Social Sciences [etc.], 1956
  3. Jump up to:a b c Castes and Tribes of Rajasthan, pp 107,Sukhvir Singh Gahlot, Banshi Dhar, Jain Brothers, 1989
  4. Jump up^ . A Muslim Sub-Caste of North India: Problems of Cultural Integration Partap C. Aggarwal Economic and Political Weekly, Vol. 1, No. 4 (Sep. 10, 1966), pp. 159-161,Published by: Economic and Political Weekly
  5. Jump up^ "At the time of 1941 Census most of them got registered themselves as Saini (Sainik Kshatriya) Malis." pp 7 , Census of India, 1961, Volume 14, Issue 5 , Office of the Registrar General, India.

लोक देवता हरभु जी (हड़बू जी) सांखला


राजस्थान के जन मानस में लोक देवताओं का बहुत महत्त्व है| 
इन लोक देवताओं के प्रति जन मानस में अटूट विश्वास का ही कमाल है कि 
इन लोक देवताओं के स्थान पर विभिन्न जातियों, वर्गों, सम्प्रदायों के लोग
 बिना किसी भेदभाव, छुआछुत के एक साथ एकत्र होकर अनेकता के एकता
 प्रदर्शित कर जातीय व साम्प्रदायिक सौहार्द का सन्देश देते है| 
राजस्थान के विभिन्न लोक देवताओं में हरभु जी (हड़बू जी) सांखला का नाम विशेष रूप से प्रसिद्ध है|
 हरभु जी सांखला जो योगी सिद्ध पुरुष थे, की गिनती पंचपीरों में की जाती है| 
सिद्ध योगी पुरुष हरभु जी सांखला के प्रति राजस्थान के जन मानस में अटूट विश्वास रहा है
 और वर्तमान में भी हरभु जी को मानने, उनके लिए मन में श्रद्धा भाव रखने वालों की बड़ी संख्या है| 
हरभु जी राजस्थान के प्रसिद्ध लोक देवता बाबा रामदेव तंवर के समकालीन व एक ही गुरु के शिष्य थे|

हरभूजी मारवाड़ राज्य के भूडेल गांव के महाराज सांखला के पुत्र थे|
 महाराज सांखला शत्रु के आक्रमण में मुकाबला करते हुए मारे गए|
 पिता के निधन के बाद हरभूजी सांखला भूडेल गांव छोड़कर
 फलोदी (जोधपुर के उत्तर-पश्चिम) क्षेत्र के गांव चाखू के जंगल में तपस्या करने लगे|
 यहीं उनसे राजस्थान के प्रसिद्ध लोक देवता और पांचों पीरों में से एक बाबा रामदेव तंवर मिले|
 तबसे हरभूजी रामदेव जी के गुरु बालनाथ जोगी के शिष्य के बने|

















राठौड़ रणमल की हत्या कर मंडोर (मारवाड़ की राजधानी) पर मेवाड़ वालों ने कब्ज़ा कर लिया था| 
रणमल राठौड़ का पुत्र, जोधपुर का संस्थापक राव जोधा मंडोर को मेवाड़ से आजाद कराने के लिए 
गुरिल्ला युद्ध के रूप में संघर्ष कर रहे थे| 
उसी संघर्ष के दौरान राव जोधा की जंगल में हरभूजी सांखला से भेंट हुई| 
राव जोधा ने हरभूजी से मेवाड़ के खिलाफ अपनी आजादी की जंग में सफलता का आशीर्वाद मांगा| 
हरभूजी ने राव जोधा को मारवाड़ में उसका पुन: राज्य स्थापित होने का आशीर्वाद देते हुए 
भविष्यवाणी की कि "जोधा तुम्हारा राज्य मेवाड़ से जांगलू तक फैलेगा|"
 हरभूजी के आशार्वाद के बाद राव जोधा मंडोर पर अपना शासन स्थापित करने में जहाँ सफल रहे
 वहीं हरभूजी की जांगलू तक उसके राज्य प्रसार की भविष्यवाणी तब सच हुई 
जब राव जोधा के पुत्र बीका ने काका कांधल के सहयोग से जांगलू प्रदेश पर अधिकार कर बीकानेर बसाया 
और उसे अपनी राजधानी बनाया, जहाँ भारत की आजादी तक उसके वीर वंशजों का शासन रहा|
हरभूजी सांखला क्षत्रिय थे|
 सांखला परमार क्षत्रियों की एक शाखा है| 
मारवाड़ राज्य के अधीन किराडू के स्वामी बाहड़ परमार के दो पुत्र थे|
 प्रथम पुत्र का नाम सोढ था जिसके वंशज सोढा परमार कहलाये| 
दुसरे पुत्र का नाम बाघ था| बाघ जैचंद पड़िहार के हाथों मारा गया| 
तब उसके पुत्र वैरसी ने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए 
ओसियां स्थित माता सचियाय से वरदान प्राप्त कर अपने पिता की हत्या का बदला लिया| 
इस सम्बन्ध में राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार नैणसी अपनी ख्यात में लिखते है- 
"माता ने उसे दर्शन दिए और शंख प्रदान किया, तभी से वैरसी के वंशज सांखला कहलाने लगे| 

जोधपुर के मंडोर उद्यान में स्थित देवताओं की साल में लगी 
विभिन्न लोकदेवताओं की प्रतिमाओं में हरभूजी सांखला की भी प्रतिमा लगी है| 
सन्दर्भ : 1- क्षत्रिय राजवंशों का इतिहास, लेखक-देवीसिंह मंडावा 2- मुंहता नैणसी री ख्यात
PARMAR/SODHA VANSH
GOTRA: VASHISHTH
VANSH: AGNI VANSHI
VED: YAJURVED
MAHADEV: RANESHWAR
GANESH: EKALDANTI
KULDEVI: DHARDEVI AMBE MA
PUJYA DEVI: SACHIYADEVI
ISHTDEV: MANDAVRAYJI (ALMIGHTY SUN)


Gothra - Bhardwaj, Manavya, Parashar.
Ved - Yajurved.
Kuldevi - Kali.
In South India they are also known as Chalukya or Choulukya. Kings Prithvidev, Madansingh was from this vansha. Madanakul was build by King Madansingh. King Chandradeep Narayan singh also from this vansha who build an ashram for Mahatma Gandhi on his own land. This ashram is known as Hajipur congress ashram.
States - Ayodhya, Kalyan, Andhra, Paatan, Gangatat. Solanki Kshatriya has 16 branches which includes Baghela, Baghel, Solanke, Kataria, Sikharia, Sarakia, Bharsuria, Tantia etc.
This vansha is existed from 1079.

Parmar Kshatriya:
Pramar, Parmar, Pambubar.
Gothra - Vashishtha.
Ved - Yajurved.
Kuldevi - Sinchimaay Mata, Durga in North India, Kali in Ujjain.
Their ancient capital was Chandrawati, situated 4 miles away from Abu station. This vansha evolves out from the Agni Kunda of Yagya on the Abu mountain."Parajan Marithi Parmar" means "Vansha which defeats the enemy" hence it is called Parmar. Great Brave king Vikramaditya, Raja Bhoj, Shalinivahan, Gandharwasen were from this vansha.
States - Malwa, Dharanagari, Dhar, Devas, Narsinghgarh, Ujjain. Samrat Vikramaditya was also recognised as a great ruler by the muslim community. According to the book Shayar ul Okul at Makab e Sultania, His glory was written on a golden plate kept at Kaba. It is also mentioned in Shayar ul Okul that Khushnuba dhoop was the giving of Vikramaditya. The entire world knows that Shivling and Kutubminar were build in Kaba by Vikramaditya.
Parmar Kshatriya has 35 branches which includes Pawar, Baharia, Ujjainia, Bholpuria, Sounthia, Chawda, Sumda, Sankla, Doda, Sodha, Bharsuria, Yashoverma, Jaivarma, Arjunvarma etc.
King Umravsingh, Jaiprakashsingh, Babusahabjadasingh were belongs to Ujjaini Kshatriya. The great Kunwarsingh Mahaveer was the son of Babusahabjadasingh.