बुधवार, 31 मई 2017

मनोहरलाल सरकार के लिए मुसीबत बने सांसद राजकुमार सैनी
कुरुक्षेत्र से भाजपा सांसद राजकुमार सैनी पार्टी के लिए परेशानी बन गए हैं। वह अपने तेवरों से हरियाणा की मनाेहरलाल सरकार के लिए सिरदर्द बनते जा रहे हैं।
चंडीगढ़। कुरुक्षेत्र से भाजपा सांसद राजकुमार सैनी पार्टी के लिए सिरदर्द बनते जा रहे हैं। उन्‍होंने प्रदेश की मनाेहरलाल सरकार की परेशानी बढ़ा दी है। जाट लैंड रोहतक में सैनी ने जिस तरह से भाजपा हाईकमान और प्रदेश सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला, उसे देखकर लग रहा कि सांसद अपने लिए विधानसभा चुनाव की जमीन तैयार कर रहे हैं। सैनी जाट लैंड जींद में अपनी नई पार्टी का एलान कर सकते हैं।

कभी पूर्व मुख्‍यमंत्री चौधरी बंसीलाल के साथी रहे सांसद राजकुमार सैनी अब भाजपा की नाक में दम करते लग रहे हैं। अप्रत्यक्ष रूप से उन्हें हालांकि पार्टी के कुछ सांसदों और विधायकों का भी समर्थन हासिल है। लेकिन, जिस तरह से उन्होंने पहले पिछड़ा वर्ग और अब गैर जाट वर्ग की राजनीति आरंभ की है, उसे देखकर लग रहा कि आने वाले समय में वे भाजपा को ही चुनौती देने वाले हैं।

भाजपा सरकार के ढाई साल के कार्यकाल में यह पहला मौका है, जब राजकुमार सैनी को मुख्यमंत्री मनोहर लाल और पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के प्रभाव वाले और जाटलैंड कहे जाने वाले रोहतक जिले में दहाड़ भरते देखा गया है। यहां उन्होंने ब्राह्मणों के सम्मेलन में शिरकत करने के साथ ही केंद्र व हरियाणा सरकारों पर निशाना साधे रखा।

सैनी अभी तक सिर्फ जाटों के खिलाफ बोलते रहे हैं और पिछड़े वर्ग को लामबंद करने में जुटे रहे, लेकिन अब उन्होंने सीधे तौर पर केंद्र व राज्य सरकारों से पंगा लेना शुरू कर दिया है। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि राज्य सरकार ने जाटों के सामने घुटने टेक दिए। सैनी अब केंद्रीय मंत्री बीरेंद्र सिंह और इनेलो सांसद दुष्यंत चौटाला के प्रभाव वाले जींद जिले में हुंकार भरने की तैयारी में हैं।
उन्होंने 26 नवंबर को यहां रैली का एलान भी कर दिया है।जींद रैली से पहले यदि सैनी को भाजपा हाईकमान ने अपने घर से विदाई नहीं दी तो सैनी खुद यहां नई पार्टी का एलान कर सकते हैं। पूर्व विधायक रोशनलाल आर्य हालांकि उनके लिए पार्टी का जुगाड़ पहले ही कर चुके हैं। ऐसे में उनकी मंशा अगला विधानसभा चुनाव लड़कर प्रदेश की शीर्ष कुर्सी तक पहुंचने की है।
रोशन लाल आर्य ने किया नई पार्टी बनाने का एलान, सैनी के लिए रखा गया अध्यक्ष पद

रोशन लाल आर्य ने किया नई पार्टी बनाने का एलान, सैनी के लिए रखा गया अध्यक्ष पद भाजपा से अलग हुए पूर्व विधायक रोशनलाल आर्य ने अपनी नई पार्टी हरियाणा सर्वजन पार्टी बनाने का एलान किया है. चंडीगढ़ में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर आर्य ने कहा कि इसके लिए वो बीजेपी के 5 विधायक और 3 गैर जाट सांसदों के संपर्क में हैं.

भाजपा से अलग हुए पूर्व विधायक रोशनलाल आर्य ने अपनी नई पार्टी हरियाणा सर्वजन पार्टी बनाने का एलान किया है. चंडीगढ़ में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर आर्य ने कहा कि इसके लिए वो बीजेपी के 5 विधायक और 3 गैर जाट सांसदों के संपर्क में हैं.

उनकी पार्टी में अध्यक्ष पद की कुर्सी खाली रखी गई है. अगर सैनी पार्टी में शामिल होंगे तो वही पार्टी के अध्यक्ष होंगे. हालांकि नियमों के तहत उनकी संसद की सदस्यता रद्द हो जाएगी. लेकिन अगले विधानसभा चुनावों में सैनी पार्टी में सीएम पद के दावेदार होंगे.

इस दौरान आर्य ने सरकार की कार्यशैली पर भी कई सवाल खड़े किए और सरकार में शामिल कई बड़े मंत्रियों पर गंभीर आरोप लगाए. आर्य के मुताबिक प्रदेश में तमाम बड़े मुद्दों पर अब अभियान शुरू किया जाएगा. पार्टी हरियाणा के वंचित वर्ग के लोगों के लिए संघर्ष करेगी.

आर्य ने कहा हमारी पार्टी जाति की सभा नहीं है.  उन्होंने कहा हम हरियाणा के वंचित वर्ग के लोगों के लिए संघर्ष करेंगे. पार्टी बनाने का मुख्य उद्देश्य ऐसे वर्ग के लोगों उत्थान के लिए कार्य करना है.
मैं भाजपा का गुलाम नहीं हूं, 26 नवम्बर को करूंगा रणनीति तय: राजकुमार सैनी

कुरूक्षेत्र से भाजपा सांसद राजकुमार सैनी ने सीधे तौर पर अपनी पार्टी को नसीहत दे डाली कि वे भाजपा के गुलाम नहीं है, पार्टी इस बात को समझे. अगर कुछ गलत होता है तो वे उसका विरोध करते रहेंगे. सैनी ने कहा कि पहले बंसीलाल और फिर चौटाला की पार्टी को इसलिए छोड़ा, क्योंकि वहां पर गलत हो रहा था.
सैनी ने कहा 2019 का चुनाव कैसा लड़ा जाएगा, इसका 26 नवम्बर को जींद में फैसला लिया जाएगा. रोहतक में परशुराम जन्मोत्सव पर आयोजित रैली को सम्बोधित करते हुए सांसद राजकुमार ने ये बाते कहीं.
जाट आरक्षण को लेकर इस बार उन्होंने अपने तेवर कुछ नरम रखे, लेकिन इतना जरूर कहा कि पूरे देश में जिस तरह से आरक्षण को लेकर आंदोलन हो रहे हैं, उससे देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा पैदा हो गया है. उनकी मांग है कि सभी को जनसंख्या के हिसाब से आरक्षण दिया जाना चाहिए. लेकिन हरियाणा में जिस तरह से आरक्षण आंदोलन हो रहा है, वह गलत है. आंदोलन में मरने वालों के परिजनों को नौकरी और मुआवजा देना गलत परम्परा है.
प्रदेश में पिछले साल जो माहौल बिगड़ा उसके लिए सांसद सैनी ने पूरी तरह से भूपेन्द्र हुड्डा को जिम्मेदार ठहराया. उन्होंने कहा कि हुड्डा ने ही आरक्षण का बीज बोया था, जिससे प्रदेश को इतना बड़ा तांडव झेलना पड़ा
राज्यसभा को खत्म करने पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि कुछ राजनैतिक घराने रसूख और पैसों के दम पर राज्यसभा में आ जाते हैं और हाल ये चुका है कि उनकी वजह से बड़े-बड़े बिल लोकसभा में पारित होने के बावजूद राज्यसभा में अटके पड़े हैं.
भाजपा सांसद ने किया जाट आंदोलन में मरने वालों के आश्रितों को मुआवजा व नौकरी देने का विरोध
रोहतक। लोकतंत्र सुरक्षा मंच के बैनर तले रविवार को रोहतक में परशुराम जयंती मनाई गई। इस अवसर पर हुई रैली में भाजपा सांसद राजकुमार सैनी ने बतौर मुख्य अतिथि शिरकत की। रैली के दौरान सैनी को भावी सीएम के तौर पर प्रोजेक्ट किया गया। रैली के दौरान अपने संबोधन में राजकुमार सैनी ने प्रमुख तौर पर पांच बिंदुओं पर जोर दिया। 
उन्होंने जाति के अनुपात में 100 प्रतिशत आरक्षण की मांग की। फिर एक परिवार, एक रोजगार की बात उठाई। उन्होंने जनसंख्या नियंत्रण की भी बात कही। भाजपा सांसद ने किसानों व गरीबों की बदतर हालत का भी जिक्र कर पिछली कांग्रेस सरकारों को कोसा। 

भाजपा सांसद ने एक बार फिर राज्यसभा का मुद्दा उठाया। उन्होंने कहा कि नकली वीआईपी राज्यसभा में घुसे बैठे हैं। सैनी ने कहा कि जब तक नकली राजनीति चलती रहेगी और प्रजातंत्र कठपुतली बना रहेगा तब तक देश का भला नहीं होने वाला है। राजकुमार सैनी ने जाट आंदोलन के दौरान मारे गए लोगों के आश्रितों को मुआवजा व नौकरी देने पर सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि अगर 10 प्रतिशत लोगों की दादागिरी चलेगी तो फिर सरकार और कोर्ट की क्या आवश्यकता है। उन्होंने आगामी 26 नवंबर को जींद में बड़ी रैली करने का ऐलान किया और कहा कि अगर जनता ने मोहर लगाई तो उस समय पार्टी की घोषणा करेंगे। 

राजकुमार सैनी ने जाट आरक्षण को लेकर पूर्व सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्डा पर भी निशाना साधा। उन्होंने कहा कि कांग्रेस सरकार के शासनकाल में पूर्व सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने ही आरक्षण के बीज बोए थे। हुड्डा ने राजनीतिक लाभ के लिए आरक्षण का लाॅली पाॅप दिया था।
मौका मिला तो ऐसी ड्राइविंग करूंगा कि 70 सालों में किसी ने न की होगी: राजकुमार सैनी
कैथ्‍ाल.
सांसद राजकुमार सैनी ने कहा कि वर्ष 2019 में जनता ने अवसर दिया तो ऐसी ड्राइविंग करके दिखाऊंगा कि देश को पता चले कि जब देश आजाद हुआ तो उसे कहां से शुरुआत करनी चाहिए थी। 16वीं सरकार में वे सदस्य हैं। कांग्रेसी 12-13 बार राज करके भी कहते हैं कि वे गरीबी मिटाएंगे। लेकिन जनता अब समझ चुकी है। सैनी कैथल में एक होटल में कार्यकर्ताओं की समस्या सुनने से पूर्व मीडिया से बातचीत कर रहे थे।

सैनी ने सरकार द्वारा तीसरा गियर लगाने की बात पर कहा कि यह तो ड्राइवर पर निर्भर करता है कि वह कौन सा गियर लगाता है। हालांकि अभी समय है, चाहे तीसरा गियर लगाएं या फिर टॉप गियर। क्योंकि एक साल बाद तो चुनावी मौसम का ब्रेकर आ जाएगा। भारी बहुमत से जिताने वाली जनता सरकार से रोजगार की आस लगाए बैठी है। डीसी रेट हो, एडहोक या अन्य नीति। अब रोजगार देना चाहिए। न्यूनतम वेतन पर अधिक से अधिक लोगों को रोजगार देना चाहिए।

एक बार फिर से राज्यसभा पर हमला बोलते हुए भाजपा सांसद ने कहा कि जिस सदन को आजादी के बाद खत्म होना चाहिए था, उसमें आज लोग पैसा देकर या फिर नेताओं की चापलूसी करके जाने वालों को ढोना पड़ रहा है। जो जनता को रोजगार, इलाज सहित कई योजनाओं में केवल और केवल बाधा पहुंचाता है।
उन्होंने कहा कि पाकिस्तान को सैनिकों के साथ की गई बर्बरता का शीघ्र माकूल जवाब मिलेगा। उसे अपनी गंदी विदेश नीति छोड़कर विकास के लिए आगे आना चाहिए। पीएम मोदी की नीतियों के कारण वह इस समय अलग-थलग पड़ चुका है।

हरियाणा में आरक्षण आंदोलन को लेकर सांसद ने कहा कि प्रदेश की जनता ने भाजपा को स्पष्ट बहुमत दिया। इसके बावजूद उपद्रवियों को सरकार द्वारा नौकरी, मुआवजा व बाद में आरक्षण तक देने का वादा किसके दबाव में किया जा रहा है। जनता इस बात से क्षुब्ध है। करीब 50 से भी ज्यादा दिनों तक डीसी से लेकर निचले स्तर के कर्मचारी उन लोगों की रक्षा में खड़े रहे, जो रिटायर हैं, केवल चंदा एकत्रित करने एवं ताश खेलने का काम कर रहे थे। पूरा प्रदेश पंगू बनाकर रख दिया गया। जनता के मन में इस बात की टीस है। मामला आरक्षण का नहीं बल्कि सीएम की कुर्सी हथियाने का था। यशपाल मलिक व उनकी टीम ने पिछड़ा वर्ग से भी जबरन चंदा उगाही का काम किया। इसका हिसाब मांगने वाले गलत नहीं हैं। इसका हिसाब दिया जाना चाहिए।

सांसद ने कहा कि 28 मई को रोहतक में भगवान परशुराम जयंती व 9 मई को कलायत में महाराणा प्रताप जयंती धूमधाम से मनाई जा रही है। इन महापुरुषों का यही संदेश था कि 100 साल के अच्छे राज की जगह एक दिन की गुलामी खराब होती है। वे भी इसी सिद्धांत पर काम करते हुए गुलामी को उखाड़ फेकेंगे।
इस अवसर पर उनके साथ सुरेश गर्ग, प्रेम कल्याण, अनिल कुमार सैनी, पूर्व सरपंच मांगें राम, रामफल सैनी, पूर्व विधायक बंता राम वाल्मीकि आदि मौजूद थे।

बुधवार, 3 मई 2017

संत षिरोमणि श्री लिखमीदास जी महाराज का जीवन परिचय
राजस्थान की पवित्र धरा शक्ति भक्ति और आस्था का त्रिवेणी संगम है। यहां समय पर ऐसे संत-महात्माओं ने जन्म लिया है जो अपने तपोबल से प्राणीमात्र का कल्याण करने के साथ-साथ दूसरों के लिये प्रेरणा स्त्रोत भी बने। ऐसे ही बिरले सन्तों में से एक थे-स्वनामधन्य संत षिरोमणि श्री लिखमीदासजी महाराज । आपका जन्म नागौर जिला मुख्यालय से नजदीक चैनार गांव में विक्रम संवत 1807 की आशाढ़ मास की प्रभात वेला में माली श्री रामूरामजी सोलंकी के घर हुआ। आप बाल्यकाल से र्इष्वर की भक्ति, पूजा-अर्चना , गुणगान तथा संत समागम में लगे रहते थे। अपनी अनन्य र्इष्वर भक्ति के बल पर ही आपने अपने जीवन काल में बाबा रामदेव के साक्षात दर्षन किये.
द्वारकाधीष के अवतार बाबा रामदेव के प्रति आपकी अगाध श्रद्धा एवं भक्ति भावना थी। आप अपने पैतृक कृशि कर्म को करते हुए ही श्री हरि का गुणगान किया करते, रात्रि जागरण में जाया करते तथा साधु-संतो के साथ बैठकर भजन-कीर्तन करते थे। ऐसा कहा जाता है कि महाराज श्री जब भी भजन- कीर्तन के लिए कहीं जाया करते थे तो उनकी अनुपसिथति में भगवान द्वारकाधीष स्वयं आकर उनके स्थान पर फसल की सिंचार्इ (पाणत) किया करते थे।

मनुश्य जीवन को प्राप्त कर 'मानवता नहीं रखी जाय तो मनुश्य जन्म कैसा? महाराज श्री ने जीव मात्र के प्रति दया अपने ह्रदय में धारण कर, मनुश्यों का सदैव हित साधन कर अपना मानव जीवन सार्थक किया। संत षिरोमणि ने सदा निर्विकार भाव से सादगीपूर्ण जीवन जीया। आप मिथ्या अभिमान, निंदा, आत्मष्लाघा, पाप कर्म एवं अनैतिकता से सदा दूर रहे। ऐसे महापुरुश कभी किसी जाति, धर्म या सम्प्रदाय के नहीं होते अपितु सबके होते हैं। षुद्ध सातिवक भाव से कर्तव्य कर्म करते रहना और अन्त में श्री भगवान का गुणगान करते हुए उसी में लीन हो जाना। षायद इसी महामन्त्र को महाराज श्री ने अपने जीवन में अपनाया और अन्त में परमात्मा तत्व में विलीन हो गये। आइये! नमन करें ऐसी दिव्य विभूति को, प्रेरणा लेते हैं ऐसे अनन्य स्वरूप् से-जिन्होंने अपना भौतिक स्वरूप (देह) माली-सैनी समाज में प्राप्त कर इसे गौरवानिवत किया। दान-दया-धर्म-अहिंसा-मानवता की प्रतिमूर्ति बनकर युगों-युगों के लिए हमारी प्रेरणा के स्रोत बन गये। हमें भी महाराज श्री लिखमीदासजी के जीवन-आदेर्षों को अपना कर मनुश्य धन्य करना चाहिए।

लिखमीदास जी महाराज महाराज के समाधि स्थल: र्इष्वर भक्ति कि साक्षात प्रतिमूर्ति महाराज श्री लिखमीदासजी की समाधि नागौर जिला मुख्यालय से 8 किमी दूरी पर सिथत अमरपुरा ग्राम में है। यहां आपके वंष के ही परिवार आज भी पिवास करते हैं। महाराज श्री की समाधि के अतिरिक्त यहां 2-3 अन्य वंषों के संतों की समाधियां भरी हैं। र्इष्वर के अनन्य भक्त श्री लिखमीदासजी महाराज का समाधि स्थल होने के कारण यह स्थल करोडों लोगों की आस्था का केन्द्र है। देष-प्रदेष-विदेष से यहां आने वाले दर्षनार्थियों का सदैव तांता लगा रहता है। माली समाज के अलावा अन्य जाति, धर्म एवं समुदाय के श्रद्वालु भक्त भी यहां आकर कथा-कीर्तन सत्संग भजन रात्रि जागरण आदि का आयोजन भी करते हैं। जिला मुख्यालय नागौर सडक मार्ग से जुडा होने के कारण यहां यातायात के साधनों की कोर्इ कमी नहीं है। निकटतम रेलवे स्टेषन नागौर ही है। नागौर से बस टैक्सी टैम्पो आदि यात्रियों के लिए सदैव सुलभ हैं। यातायात साधनों की सुलभता से यहां श्रद्वालुओ का आना-जाना बना रहता है किन्तु धार्मिक आयोजनों (कथा-कीर्तन-सत्संग-जागरण के लिए पर्याप्त स्थान एवं सुविधाओं का सर्वथा अभाव है। धर्मप्रेमी यात्रियों के ठहरने धार्मिक सभा-समारोह आदि के आयोजन के लिए भी भवन नहीं है। अत: यहां ठहरने के इच्छुक श्रद्धालुओं को काफी असुविधा का सामना करना पडता है। धार्मिक भावनाओं से जुडे आध्यातिमक स्थल पर स्थायी गृहस्थावास भी समुचित प्रतीत नहीं होता। संत षिरोमणि श्री लिखमीदासजी महाराज ने भä किे जिस चरमोत्कर्श की प्रापित की उस उपलबिध के अनुसार उनका समाधि स्थल तदनुरूप् आकर्शक प्रतीत नहीं होता है। समाधि स्थल के महत्व को बढाने के लिए यह अत्यन्त आवष्यक है कि समाधि स्थल को संत श्री की महिमा के अनुरूप आकर्शक रूप में निर्मित किया जाय। श्रेश्ठ निर्माण तथा पर्यावरण की दृशिट से समाधि स्थल को प्राकृतिक स्वरूप प्रदान करना भी आज की प्रमुख आवष्यकता है। समाधि स्थल ऐतिहासिक स्मारक के रूप में प्रसिद्ध एवं प्रतिशिठत होना चाहिए। संत श्री के स्मृति स्थल को समय की मांग के अनुरूप बनाना हम सबका कर्तव्य है।
मारवाड़ को बचाने में सैनिक क्षत्रिय जाति की भूमिका
 राजपूत क्षत्रियों से ही है हमारी उत्पति
-मदनसिंह सोलंकी
       राजपूत माली ये मारवाड  में बहुत ज्यादा है। इनके पूर्वज शहाबुदीन और कुतुबुद्दीन,  ग्यासुद्दीन और अलाउद्दीन आदि दिल्ली के बादशाहों से लड़ाई हार कर जान बचाने के लिए राजपूत से माली हुए। पृथ्वीराज चौहान और उनकी फौज के जंगी राजपूत द्राहाबुद्दीन गौरी से लड कर काम आ गये थे और दिल्ली अजमेर का राज्य छूट गया तो उनके बेटे पोते जो तुर्को के चक्कर में पकड़े गये थे। वे अपना धर्म छोड ने के सिवाय और किसी तरह अपना बचाव न देख कर मुसलमान हो गये जो अब गौरी पठान कहलाते है। उस वक्त कुछ राजपूतो को बादशाह के एक माली ने माली बताकर अपनी अपनी सिफारिश से छुडवा लिया। बाकी पकडे़ और दण्ड दिये जाने के भय से दूसरी कौमों में छुपते रहे। उस हालत में जिसको जिस-जिस कौम में पनाह मिली, वह उसी कौम में रहकर उसका पहनावा पहनने लगे। ऐसे होते-होते बहुत से राजपूत माली हो गये। उनको कुतुबुद्दीन बादशाह ने जबकि वह अजमेर की तरफ आया था सम्वत्‌ १२५६ के करीब अजमेर और नागौर जिलों के गांवों में बसने और खेती करने का हुक्म दिया। ये माली गौरी भी कहलाते है।
      आठ वर्षो तक राजपूत समाज से बहिष्कृत रहने के कारण निराश होकर दो वर्षो तक मालियों के साथ रहे। मालियों के रीति-रिवाज पसन्द नही आने के कारण हमारे पूर्वजों ने राजपूत माली/माली राजपूत/क्षत्रिय माली/सैनिक क्षत्रिय समाज की नींव रखी। युद्ध क्षत्रिय परशुरामजी के वक्त में जबकि वे अपने बाप के बैर में पृथ्वी को निःक्षत्रिय करने में लग रहे थे, मिल गये। 
      जोधपुर के मण्डोर में गत ७०० वर्षो से राजघराने के तथा हमारे शमशान एक ही है। जब मण्डोर उद्यान की योजना बनी तब हमारे शमशान को हटाना पडा़ लेकिन उन्हे मण्डोर उद्यान सीमा में ही रखा गया। केवल हमारे समाज के शव मण्डोर उद्यान में प्रवेश कर सकते है, अन्य समाज के नही। महाराजा जसवन्तसिंह द्वितीय का दाह संस्कार किले के पास वर्तमान जसवन्त थडा में किया गया। तब से बाद के राजाओं के दाह-संस्कार यहां ही होते है।
राव ईसर को कहते है, ईसर निकालने का अधिकार केवल राजपूतों को ही है। जोधपुर के मण्डोर में हमारे समाज की ओर से होली के दूसरे दिन ईसर निकाला जाता है। स्वजातीय बंधु ढोल बजाते गाते प्राचीन राज महलों में जाते है तथा वहां फाग खेलते है। गहलोत परिवार के किसी एक व्यक्ति को ईसर बनाया जाता है। वह हमारे राजपूत होने का बहुत बड़ा प्रमाण है। आज भी हमारे और राजपूतों के गौत्र एक ही है। दूसरा एक भी गौत्र नही है।

      राजपूतों की तरह हममें भी पिता के जीवित होते पुत्र कंवर और पौत्र भंवर तथा मृत्योपरान्त ठाकुर कहलाता है। जोधपुर के कर्नल सर प्रतापसिंह के नेतृत्व में सन्‌ १९०० में चीन युद्ध में भाग लिया था। उसमें रिसालदार चतुरसिंह कच्छवाहा व उनके छोटे भाई धुड सिंह दफेदार के रूप में थे। जोधपुर राज्य के रिसाला में केवल  राजपूतों को ही लिया जाता था। नागौर, जोधपुर व बीकानेर नगरों की रक्षार्थ उनके चारों ओर सैनिक क्षत्रिय जातियों को बसाया गया था। नं. ७८३ एफ ६१ भारत वर्ष की मनुष्य गणना के उच्च अधिकारी कमिश्नर दिल्ली ने यह निश्चय किया है कि जो माली अपने को सैनिक क्षत्रिय लिखाना चाहे उनकों आम तौर पर भारत में ऐसा लिख दिया जावे। चाहे भिन्न-भिन्न रियासतों में भिन्न-भिन्न नाम से यह जाति कहलाती है। तमाम  कुनिन्दों के नाम मुनासिब हुक्म जारी किये जावे। इस जाति के लोगों को सैनिक क्षत्रिय (एक जुदा जाति) दर्ज किया जाये।

      एस.डी.बी. एल कोल/एल.टी. कोल, १२.०२.१९३१, अधीक्षक सेन्सस आपरेशन, राजपूताना एण्ड अजमेर मेरवारा उपर्युक्त उदाहरणों व प्रमाणों के आधार पर यह निर्विवाद प्रमाणित है कि सैनिक क्षत्रिय माली क्षत्रिय वर्ग के है।

      (१) मण्डोर पर अधिकांश समय परिहारों का राज्य रहा। वि.सं. १४५० में राना रोपड  को हरा कर बादच्चाह जलालुद्दीन ने मण्डोर पर कब्जा कर लिया। इस तुर्क वंश के १०० वर्ष राज्य के बाद दिल्ली सल्तनत कमजोर हो गई। गुजरात के सुबेदार जाफर खॉ ने मारवाड  पर कब्जा कर दिया। वि.सं. १४५१ में राजपूत वीरों ने ऐबक खॉ और उसके तमाम सैनिकों को घास की तरह काट कर किले पर कब्जा कर बालेसर के राणा उगमसी इन्दा को सूचना दी। लकिन मण्डोर की रक्षा करने में राजा असमर्थ था। ऐसे में विकट समय में अपने प्रधानमंत्री हेमाजी गहलोत की सलाह से राव मल्लीनाथ राठौड़ के ताकतवर भतीजे चूण्डाजी से अपने मुख्य राव धावल की कन्या का विवाह कर मण्डोर दहेज में दे दिया। इस प्रकार बचाया मण्डोर को हेमाजी गहलोत ने बचाया।

      (२) दिल्ली के बादशाह शेरशाह से युद्ध नही करके राव मालदेव छप्पन की पहाडियों में चले गये। जैता और कूंपा आदि सरदारों ने युद्ध किया लेकिन  हार गये। पोष सुदी ग्यारस वि.सं. १६००. में शेरशाह ने जोधपुर तथा किले पर कब्जा कर लिया। खवास खॉ को हाकिम बनाकर शेरशाह दिल्ली चला गया। वि.सं. १६०२ में शेरशाह ने कालिंजर पर चढाई की। किले पर हमला करते समय बारूद फटने से उसकी मृत्यु हो गयी। खवास खॉ किसी काम से जोधपुर से बाहर गया हुआ था। इस अवसर का लाभ उठाते हुए मण्डोर के सैनिक क्षत्रिय (गहलोत) ने जोधपुर तथा किले पर कब्जा कर लिया। खवास खॉ तुरन्त वापस आया लेकिन वह मारा गया। राव मालदेव को सूचना भेज कर बुलाया गया तथा जोधपुर व किला सौंपा। इन लोगो के साहस, वीरता व उल्लेख खयात में देखें।

      (३) राजपूत समाज की परम्परा के अनुसार सैनिक क्षत्रिय जाति की कन्याएं शादी के बाद भी अपने पीहर के गौत्र से सम्बोधित होती है। गौरा धाय टाक की माता का नाम पूरा देवी देवडा तथा पिता का नाम रतना टाक था। गौरा धाय के पति का नाम मनोहर गोपाल भलावत गहलोत है। यह मण्डोर के सैनिक क्षत्रिय समाज के है। जोधपुर पोकरण की हवेली से सटी गोराधाय बावडी है जो इसकी बनवाई हुई है। इसकी छः खम्भों की स्मारक छतरी पब्लिक पार्क के पास कचहरी रोड  पर स्थित है।

      महाराजा जसवन्त सिंह जी का स्वर्गवास वि.सं. १७३५पोष बदी १० को जमरूद के थाने पर हुआ। गौराधाय टाक ने मेहतरानी का रूप धारण कर और जोधपुर महाराजा प्रथम के राजकुमार अजीतसिंह के स्थान पर उनके सम वयस्क अपने पुत्र को सुला कर अजीत सिंह को औरंगजेब के सखत, सतर्क, चौकस शासन में दिल्ली से किच्चनगढ के राज रूपसिंह की हवेली से उठाकर कालबेलिया बने मुकनदास खीची को गौपनीय रूप में सौपा। एक जननी के लिए अपनी सन्तान उसकी सम्पूर्ण अस्मिता होती है। मारवाड  के द्राासन में गौराधाय टाक बलिदान निर्णायक था अन्यथा जोधपुर का स्वरूप दूसरा होता। पन्ना का और गौरां का त्याग एक जैसा है।
मेवाड़ की पन्ना धाय, त्याग गौरां का जौर।

      (४) हस्ती बाई जी गहलोत पत्नी राधाकिच्चन जी सांखला थलियों का बास सोजती गेट के अन्दर जोधपुर ने महाराजा सरदारसिंह को अपना दूध पिलाया था। उदपुर तथा बीकानेर के महाराजाओं की धाय सैनिक क्षत्रिय समाज की थी। उपर्युक्त सभी कारणों को मध्य नजर रखते हुए जोधपुर के महाराजा उम्मेदयिंह जी की हमें वापिस राजपूत समाज में मिलाने की योजना भी थी, जो सन्‌ १९३० के आसपास की है।
         
क्षत्रिय मालियों के चलु, गोत, खांप, प्रशासक नूख

चौहान- सूरजवंशी, अजमेरा, निरवाणा, सिछोदिया, जंबूदिया, सोनीगरा, बागडीया, ईदोरा, गठवाला, पलिकानिया, खंडोलीया, भवीवाला, मकडाणा, कसू, भावाला, बूभण, सतराबल, सेवरीया, जमालपुरीया, भरडीया, सांचोरा, बावलेचा, जेवरीया, जोजावरीया, खोखरीया, वीरपुरा, पाथ्परीया, मडोवरा, अलुघीया, मूधरवा, कीराड वाल, खांवचां, मोदरेचा, बणोटीया, पालडि या, नरवरा बोडाणा, कालू, बबरवाल।

राठौड - सूरजवंशी, कनवारिया, घोघल, भडेल, बदूरा, गढवाल, सोघल, डागी, गागरिया, कस, मूलीया काडल, थाथी, हतूडीया, रकवार, गद्दवार दइया, बानर, लखोड , पारक, पियपड , सीलारी इत्यादि।

कच्छवाहा- सूरजवंशी, नरूका राजावत, नाथावत, द्रोखावत, चांदावत।

भाटी- चन्द्रवंशी, यादव (जादव), सिंधडा, जसलमेरा, अराइयां, सवालखिया, जादम, बूधबरसिंह, जाडेजा,महेचा, मरोटिया, जैसा, रावलोत, केलण, जसोड ।

सोलंकी- चन्द्रवंशी चालूक्या, लूदरेचा, लासेचा, तोलावत, मोचला, बाघेला।

पडि हार- सूर्यवंशी, जैसलमेरा मंडोवरा, बावडा, डाबी, ईदा, जेठवा, गौड , पढिहारीया, सूदेचा, तक्खी।

तुंवर- चन्द्रवंशी, कटीयार, बरवार, हाडी, खंडेलवाल, तंदुवार, कनवसीया, जाठोड कलोड ।

पंवार- चन्द्रवंशी, परमार, रूणेचा, भायल, सोढा, सांखला, उमठ, कालमा, डोड, काबा, गलेय (कोटडीया)।
गहलोत- सूर्यवंशी, आहाड़ा, मांगलीया, सीसोदिया, पीपाडा, केलवा, गदारे, धोरणीया, गोधा, मगरोया, भीमला, कंकटोक, कोटेचा, सोरा, उहड , उसेवा, निररूप, नादोडा, भेजकरा, कुचेरा, दसोद, भटवेरा, पांडावत, पूरोत, गुहिलोत, अजबरीया, कडेचा, सेदाडि या, कोटकरा, ओडलिया, पालरा, चंद्रावत, बूठीवाला, बूटीया, गोतम, आवा, खेरज्या, धूडेचा, पृथ्वीराज गेलो, आसकरण गेलो, भडेचा, ताहड , गेलोत, मूंदोत, भूसंडिया, दोवड , चन्द्रावत, बागरोया, सादवा, रंगिया।

नोट- चौहान, देवडा टाक, यह तीनों एक परिवार है और सूर्यवंशी है।
१. देवडा, देवराट, निरवाणा के बेटे का है, यह चौहानों की शाखा है।
२. टाक सदूल का बेटा है जो चौहानों की शाखा है।
३. सांखला पंवारों के भाई है और सखल, महप, धवल, उदिया, दतोत के ८वां पुत्र है।

नोट-
१. चौहान खांप के टाक पूना के तथा मारोटिया जैसिंह के है तथा खांप भाटी जादम व तंवर की नख तूदवाल है।
२. सैनिक क्षत्रिय का मुख्य शहर नागौर है तथा अपने रोजगार के लिए अन्य जगहों पर आबाद हो गये।
३. सैनिक क्षत्रिय शादी ३६ जातियों में ही करें लेकिन अन्य सामाजिक कार्य बाह्मणों के
साढे छः गौत्रों की तरह मिलकर कार्य करें।


Maharaja Shoor Saini

Maharaja Shoor Saini was born in the Mahabharat period. 
He ruled over ‘Sur Sen’, a kingdom in northwest India.
 According to ancient historical records, Mathura was the capital of this kingdom.
 His kingdom extended from Afghanistan to Uttarkashi and from Rajasthan to Southern India.
He strongly believed in righteousness and kindness and karma sidhant of vedic scriptures. 
He possessed a sound knowledge of law and ruled the kingdom under codified laws written into a book
. He gave a new way of life to his kingdom known as the Saini religious way of life.
 He gave the vision to these people to work hard irrespective of their occupation. 
This is the reason sainis profess different occupations like floriculture,
 agriculture, baghbani and vegetable production in different regions of India.

संत लिखमिदास जी

SiromaniLikhamidasGसंत लिखमिदास जी का जन्म विक्रम संवत् 1807 आषाढ सुदी 15 (पूर्णिमा) 8 जुलाई 1750 को समुदास जी सोलंकी के घर श्रीमति नत्थी देवी के कोख में हुआ।राजस्थान के नागौर जिले में चैनार गांव में बड़की बस्ती है और धाम नागौर से 6 किलोमीटर दूर अमरपुरा नामक गांव मे है। जो राष्ट्रीय राजमार्ग 65 पर स्थित है। बाल्यकाल और भक्ति:- आप बाल्यकाल में ही ईष्वर की अराधना में लीन रहने लगे थे और रामदेव जी भक्ति करते थे। आपके गुरू खिंयारामजी राजपूत थे।आपका विवाह परसरामजी टाक की पुत्री श्रीमति चैनी के साथ हुआ। आपके दो पुत्र और एक पुत्री थी बड़े पुत्र का नाम जगरामजी तथा छोटे पुत्र का नाम गेनदासजी तथा पुत्री का नाम बदिगेना था। धाम:- लिखमिदासजी महाराज की प्रधान धाम अमरपुरा गुरूद्वारा है, अन्य धामें देह, गुडला, ताऊसर, गोंआ आदि स्थान पर है आपके मंदिर शिवगंज, अहमदाबाद, मेड़माड़वास आदि स्थानों पर है।
लिखमिदास जी महाराज ने सैकड़ों पर्चें दिये है और हजारों भजन तथा दोहों की रचना की है। आपके कुछ पर्चें निम्न प्रकार है। घोड़े से पैदल हाथ नही आना, अमरपुरा, को खाली करना, महाराज भीमसिंह जी को चारभुजा के दर्शन देना, हाकम द्वारा क्षमा माॅगकर आपको छोड़ना, बाड़ी में सिचाई करना, जैसलमेर में लड़के को जीवित करना, भगवान द्वारा खेत की कड़ब काटना, एक समय में दो गांवो में जागरण देना, जीवित समाधि की पूर्व में सूचना देना समाधि वाली वस्तुएॅ अहमदाबाद के मूल्ला का
लिखमिदास जी महाराज ने विक्रम संवत् 1887 आसोज बदी 6 (षष्टमी) 08 सितम्बर 1830 को ग्राम अमरपुरा जीवित समाधि ली। वर्तमान में आपकी धाम के महंत जीतुराम जी महाराज है। आपकी जयंती पूरे भारत वर्ष में मनाई जाती है।

Maharaja Shoor Saini 

 

 Kansa was the first major king of Northern India, Kansa. By virtue of his might, he declared himself as the first king of Mathura. King Jarasandha of Magadha, offered his two daughters in marriage to Kansa. Thus, the first empire of pre-historic or Proto-history India was established by Kansa, the scion of Shoor saini dynasty. Kansa performed the famous Ashwamedha Yagna and set his horse moving and his armies followed the horse under his personal command. They were away for twelve years from the capital “Shoorpur” in the city of Mathura.
 
After Mahabharata, Parikshat was made king of Hastinapur. Vajra, the grandson of Krishna at Indraprastha. A grandson of Satyaki named Bhuti was made king of Saraswati. Andhaka s son was made king at Marttikavata near Mount Abu. Thus the princes of the Pandava-Krishna lines ruled North India, Sindh, Gujarat and the area North and West of the Yamuna. They founded many republics like Pargiter, Bhargava and Jayaswal.
 
The famous Yaudhey a republic had 5000 war elephants and 5000 aristocratic families, who were good agriculturists and good soldiers. Their fame and power caused the retreat of Alexander from the Beas in 326 BC. Future wars led to the Sainis retreating into infertile foothills from central regions of Punjab under pressure from the Scythians. They spread along the rivers.
 
As the time passed, Sainis and Ahirs along with other Branches of Yadus and some other Aryans aligned themselves under the banner of Krisna-Pandava and fought against the Aryans. These Aryans had accepted the hegemony of orthodox Brahmins to rule the kingdoms. Sainis defeated them. During this time intermarriages between different Yadu branches were possible. Satyaki the grandson of Shoor Saini was a cousin of Krisna. Kunti, the mother of Pandavas was daughter of Sura Sena King. Between 500-300 BC, these Aryan tribes kept fighting each other and this was the period of chaos.
 
During this time Magadha emerged supreme and their kings were highly influenced by Brahamans. Brahamans divided the Aryan kshatriyas into Surya and Chander Vanshis. Sainis were placed under Chander Vanshis. Since Sainis and Ahirs refused to accept Brahmanism, they were diplomatically given the second place among Kshatriyas. Brahmans favoured those Aryan kshatriyas who accepted their hegemony and allowed them to play a role in the politics to rule the kingdoms i.e. brahmanical system in Society.
 
Porus Porus or Puru, the son of king Chandra Sen, was the last Shoor saini king. He ruled the fertile area of the Punjab between the rivers Jhelum and Beas. The Saini s have been classified as Chandravanshi Kshatriya s. The Chandravanshi lineage is one of the three lineages into which the Kshatriya caste of Hindus is divided. According to legend, the Chandravanshis are descended from Chandra,in the Lunar Dynasty or the Hindu Moon God. Maharaja Sur Saini was born in the post-mahabharat period. He was a very good administrator which made him popular among his people. Maharaja Udak, a very famous king was his ancestor. Maharaja Udak had 2 sons named Bhajman and Durota. Durota further had a son, Maharaja Sur and Maharaja Sur Saini was the son of Maharaja Sur.
 
Maharaja Sur Saini ruled over Sur Sen , a kingdom in northwest India. According to ancient historical records, Mathura was the capital. His kingdom extended from Afghanistan to Uttarkashi and from Rajasthan to Southern India. He was an excellent warrior but kindness was his greatest virtue. His subjects were happy under his reign and lived peacefully.
 
Maharaja Sur Saini came from a clan that was deeply religious, impressed by his thoughts his people and future generations embraced the Saini religious way of life.
 
Origin & History Of Saini caste Jyotirao Govindrao Phule, who was a prominent activist, thinker and social reformer from the Indian state of Maharashtra during the 19th century, was also famous by the name of Mahatma Jyotiba Phule. During his time, he tried bringing in positive renovations in the spheres of education, agriculture, caste system, social position of women et al. Out of everything that Phule ever did, he s most remembered for his selfless service to educate women and lower caste people.
 
SAINI S are a kshatriya clan belonging to the CHANDRAVANSHI KSHATRIYA s, a branch of the warrior class. In a high court judgement in punjab the court ruled that this is a KSHATRIYA community and should be known as saini kshatriya s. Sainis claim descent from Sura & his grand father Rajan Saini. Sura was the grand father of Lord Krishna. Saini (Rajan Saini) was the grand father of Satyaki of Mahabharat. Sura & Saini were cousins (as recorded in the Mahabharat). Together they ruled the republic: Andhaka-Vrishni. This was the first known democracy in India. These Kings later adopted the title of Raja Sursen or Sura-Sena, a name adopted from the country they ruled.
 
Satyaki, the grand son of Rajan Saini, ruled the Sura-Sen kingdom in the north-west of India. Rajan Saini founded Saini vansh, which is one of the eleven vanshas of Yadus and one of the tribes of the Yadavas.
 
Rajan Saini Rajan Saini (Sini), a character in the great Indian epic, the Mahabharata. Sini was the uncle of Vasudeva, the father of Sri Krishna. When Devaki, the mother of Krishna, was a maiden, many princes competed for her hand in marriage. This led to a dispute. In the end, a great battle ensued between two princes of different families over it: Somadatta and Rajan Sini. In this fierce battle Rajan Sini won, and on behalf of Vasudeva he carried Devaki in his chariot and drove her away.
 
This incident led to a feud between the two clans, the Sini family and that of Somadatta The rivalry came to the fore-front last time on the battlefield of Kurukshetra, where Sini s grandson, Satyaki, who was a peer and friend of Arjuna and a famed archer, clashed with Bhurisravas, Somadatta s son, who was on the Kaurava side, resulting in the slaying of Bhurisravas by Satyaki.
 
Terminology The term Shoor saini is as old as the history of India. Etymologically, the Hindi word “Shoor” means displayer of gallantry and "Saini" is a generic name for the ruling dynasty that ruled Northern India from Mathura to Patiala. Their rule and governance were so benevolent that the area they ruled came to be known as “Shoor saini Pradesh” and the language they spoke was known as “Shoor saini”.
 
Draupadi being a daughter of the Shoor saini dynasty, and that even Krishna belonged to these people. In the Mahabharata, Satyaki is the leader of the Shoor sainis and is famous for his bravery Maharaja Shoor Saini Maharaja Udak was a very famous king. Maharaja Udak had two sons named Bhajman and Durota. Durota further had a son, Maharaja Sur and Maharaja Sur had a son who was named Maharaja Sur Saini (sometimes called Shoor Saini).
 
Maharaja Shoor Saini was born in the Mahabharat period. He ruled over Sur Sen , a kingdom in northwest India. According to ancient historical records, Mathura was the capital of this kingdom. His kingdom extended from Afghanistan to Uttarkashi and from Rajasthan to Southern India.
 
He strongly believed in righteousness and kindness and karma sidhant of vedic scriptures. He possessed a sound knowledge of law and ruled the kingdom under codified laws written into a book. He gave a new way of life to his kingdom known as the Saini religious way of life. He gave the vision to these people to work hard irrespective of their occupation. This is the reason sainis profess different occupations like floriculture, agriculture, baghbani and vegetable production in different regions of India. A picture of him is presently displayed at Lahore (Pakistan) museum.

मंगलवार, 2 मई 2017

सैनी समाज का इतिहास
क्षत्रिय वंश की उत्पत्ती -
                         हिन्दुओं के बड़े-बड़े पूर्वकाल के ग्रंथों से ज्ञात होता है कि पूर्वकाल में (विवस्वान) सूर्य तथा चंद्रमा महान आत्मा वाले तथा तेजयुक्त प्राकर्मी व्यक्तियों ने जन्म लिया। उन्होंने शनैः - शनैः क्षत्रिय कुल का विस्तार किया। विवस्तमनु ने सूर्यवंश तथा चंद्र के पुत्र बुद्ध ने चंद्रवंश की प्रसिद्धी की। दोनों महापुरूषों ने भारत भूमि पर एक ही समय में अपने विशाल वृक्षों को रोपित किया। आगे चलकर इन दोनों वंशों में जैसे-जैसे महापुरूषों का समय आता गया वंशों और कुलों की वृद्धि होती गई। सूर्यवंश में अनेक वंश उत्पन्न हुए, जैसे इक्ष्वांकु वंश, सगर वंश, रघु वंश, भागीरथी वंश, शूरसेन वंश तथा अनेक वंश व कुलों की उत्पत्ति हुई।
महाराजा भागीरथ के पूर्वज- श्रीमद् भागवत् पुराण, स्कंद पुराण, हरिवंश पुराण, विष्णु पुराण, पदम पुराण, वाल्मिकी रामायण, महाभारत और कौटिल्य के अर्थशास्त्र आदि ग्रंथों के अनुसार पहला आर्य राजा वैवस्वत मनु हुआ। उसकी एक कन्या व आठ पुत्र थे। सबसे बड़ा पुत्र इक्ष्वांकु था। जो मध्य देश का राजा बना। जिसकी राजधानी अयोध्या थी। इसी वंश को सूर्यवंश नाम से ख्याति मिली। राजा इक्ष्वाकु के 19 पीढ़ी बाद इस वंश में महान चक्रवर्ती सम्राट मान्धाता हुए। उनके 12 पीढ़ी बाद सत्यवादी राजा हरीश्चंद्र हुए, जो राजा त्रिशंकु के पुत्र थे। 
राजा हरीश्चंद्र की 8वीं पीढ़ी में राजा सगर हुए। इनकी दो रानियां थी एक कश्यप कुमारी सुमति और दूसरी केशिनी। सुमति से 60 हजार पुत्र हुए और रानी केशिनी से उन्हें असमंजस नामक पुत्र प्राप्त हुआ। पौराणिक अनुश्रुति के अनुसार राजा सगर ने चक्रवर्ती सम्राट की उपाधि धारण करने के लिए अश्वमेघ यज्ञ किया। इनकी अभिलाषा से अप्रसन्न इंद्र ने यज्ञ के घोड़े को चुराकर पाताल ;आधुनिक गंगा सागरद्ध स्थान पर परम् ऋषि कपिल के आश्रम में बांध दिया। घोड़े के खुरों के चिन्हों का पीछा करते हुए सगर के 60 हजार पुत्र आश्रम में पहुंचे। इस दौरान कुछ कुमारों ने उत्पात मचाते हुए मुनि को ललकारा और मुनि का ध्यान भंग हो गया। उन्होने कुपित दृष्टि से उनकी ओर देखा और थोड़ी ही देर में सभी राजकुमार अपने ही शरीर से उत्पन्न अग्नि में जलकर नष्ट हो गए। 
राजा सगर ने अपने पौत्र अंशुमान को 60 हजार चाचाओं और यज्ञ के घोडे के विषय में समाचार लाने का आदेश दिया। राजा ने उसे वंदनीय को प्रणाम और दुष्ट को दण्ड देने का आदेश देते हुए सफल मनोरथ के साथ लौटने का आशीर्वाद दिया। अंशुमान उन्हें खोजते-खोजते कपिल मुनि के आश्रम पहुंच गए। वहां का दृश्य देख वे शोक और आश्चर्य से व्याकुल हो उठे। उन्होंने धैर्य रखते हुए सर्वप्रथम मुनि की स्तुति की। कपिल मुनि उनकी बुद्धिमानी और भक्तिभाव से प्रसन्न होकर बोले- घोड़ा ले जाओ और जो इच्छा हो वर मांगो। अंशुमान ने कहा मुनिवर ऐसा वर दीजिए जो ब्रह्मदंड से आहत मेरे पित्रगणों को स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला हो। इस पर मुनि श्रेष्ठ ने कहा कि गंगा जी को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने का प्रयत्न करो। उसके जल से इनकी अस्थियों की भस्म का स्पर्श होते ही ये सब स्वर्ग को चले जाएंगे। अंशुमान वापस राज्य में आ गए और सब कुछ राजा सगर को कह सुनाया। राजा सगर और उनके पुत्र असमंजस और असमंजस के पुत्र अंशुमान अनेक प्रकार के तप और अनुष्ठान द्वारा गंगा जी को पृथ्वी पर लाने का प्रयास करते-करते जीवन त्याग गए। परंतु गंगा को पृथ्वी पर लाने का कोई मार्ग दिखाई नहीं दिया। अंशुमान के पुत्र राजा दिलीप का भी सारा जीवन इसी प्रयास में व्यतीत हो गया किन्तु सफलता नहीं मिली। राजा दिलीप के पश्चात उनका अत्यंत धर्मात्मा पुत्र भागीरथ राजा बना। उनकी कोई संतान नहीं थी। उन्हांेने अपने जीवन के दो लक्ष्य निर्धारित किए। एक वंश वृद्धि हेतु संतान प्राप्ति और दूसरा अपने प्रपितामहों का उद्धार। अपने राज्य का भार मंत्रियों पर छोड़कर वे गोकर्ण तीर्थ में जाकर घोर तपस्या में लीन हो गए। 
विष्णु पुराण अध्याय-4 अंश चार एवं वाल्मिकी रामायण बाल कांड सर्ग 21 के अनुसार भगवान ब्रह्मा जी ने प्रकट होकर भागीरथ को वर मांगने को कहा। भागीरथ ने ब्रह्मा जी से अपने प्रपितामहों को अक्षय स्वर्ग लोक की प्राप्ति के लिए गंगा जल को पृथ्वी पर प्रवाहित करने और अपने वंश वृद्धि हेतु संतान का वर मांगा। भगवान ब्रह्मा जी ने हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री हेमवती गंगा जी के दर्शन भागीरथ जी को कराए और कहा कि इसके तीव्र वेग को केवल भोले शंकर ही अपने मस्तक पर धारण कर सकते हैं अन्यथा सम्पूर्ण पृथ्वी रसातल में धंस जाएगी। वंश वृद्धि के लिए भगवान ब्रह्मा जी ने भागीरथ को वर दिया। आगे चलकर भागीरथ को श्रुत नाम का पुत्र रतन प्राप्त हुआ। भागीरथ जी ने एक वर्ष तक भगवान शिव की कठोर तपस्या की। जिस पर शिवजी प्रसन्न होकर गंगा को अपने मस्तक पर धारण करने को तैयार हुए। तब भागीरथ ने पुनः ब्रह्मा जी की स्तुति कर गंगा को पृथ्वी की कक्षा में छोड़ने को कहा। तब जाकर भगवान शंकर जी ने गंगा जी को अपनी जटाओं में धारण किया। इसके बाद उन्होंने गंगाजी को बिन्दू सरोवर में ले जाकर छोड़ दिया। वहां से यह महाराजा भागीरथ जी के रथ के पीछे चली और भागीरथ जी इसे अपने प्रपितामहों की भस्म तक ले गए। इसके जल में स्नान कर भागीरथ जी ने अपने प्रपितामहों का तर्पण किया। इस प्रकार उनको सद्गति मिली और राजा सगर भी पाप बोध से मुक्त हुए। सफल मनोरथ से भागीरथ अपने राज्य में लौट आए। गंगा जी को इनके नाम से जोड़कर भगीरथी भी कहा जाता है। राजा भागीरथ के बाद 17वें वंश में राजा रघु हुए। इनके नाम से रघुकुल अथवा रघुवंश विख्यात हुआ। रघु के अज और अज के राजा दशरथ हुए। इनके चार पुत्र राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघन हुए। राम के पुत्र कुश से कुशवाह वंश चला। आगे चलकर भगवान बुद्ध भी इसी वंश में हुए। उनसे शाक्य वंश प्रारम्भ हुआ। इसमें शत्रुघन के पुत्र शूरसेन और शूरसेन के पुत्र सैनी महाराज हुए। महाराजा चंद्रगुप्त मौर्य से मौर्य वंश प्रारम्भ हुआ। 
सैनी कुल इतिहास का प्रारम्भ सैनी महाराज अथवा शूरसेन महाराज से मानने की एक परम्परा आज भी प्रचलित है। इस कुल में एक वर्ग भगीरथी सैनी कहकर पुकारे जाने की परम्परा भी है। यदि विचार किया जाए तो स्वीकार करना पड़ेगा कि ये सभी एक ही वंश से हैं। इसी में 20 पीढ़ी पहले महाराजा भागीरथ हुए। इस प्रकार महाराजा भागीरथ आदरणीय सैनी समाज के भी पूर्वज थे। भगवान बुद्ध के भी पूर्वज थे, अशोक महान के भी पूर्वज थे। समय की गति के साथ शाखाएं फूटती हैं किन्तु जड़ एक और स्थिर रहती है। सैनी सूर्यवंशी हैं सैनी नाम के भीतर भागीरथी,गोला, शुरसेन, माली, कुशवाह, शाक्य, मौर्य, काम्बोज आदि समाहित हैं। महाराजा भागीरथ हमारे ज्येष्ठ पूर्वज हैं। इनकी विभिन्न शाखाओं में होने वाले अत्यंत गुणशील, वीर और आदर्श महान हस्तियां हम सबके लिए गौरव का प्रतीक हैं।
यह है सैनी समाज का इतिहास अर्थात पूर्व गौरव जो हमारी आंखों से ओझल हो रहा था। 750 वर्षों बाद हमारी आंखों के पट खुले हैं अब हमें अपनी आंखों की पट की रोशनी को बढ़ाना चाहिए, अन्यथा हमारी भुजाओं का वह रक्त किसी युग में नहीं उमड़ सकेगा। इसलिए हमारा कर्तव्य है कि हमें अपनी भुजाओं में पूर्व रक्त की बूंदों को चमका देना चाहिए।
"माली समाज की उत्पत्ति"


      "माली समाज की उत्पत्ति" के बारे में यूं तो कभी एक राय नहीं निकली फिर भी विभिन्न ग्रंथो अथवा लेखा - जोगा रखने वाले राव, भाट, जग्गा, बडवा, कवी भट्ट, ब्रम्ह भट्ट वकंजर आदि से प्राप्त जानकारी के अनुसार तमाम माली बन्धु भगवान शंकर माँ पार्वती के मानस पुत्र है ! एक कथा के अनुसार दुनिया की उत्पत्ति के समय ही एक बार माँ पार्वती ने भगवान शंकर से एक सुन्दर बाग़ बनाने की हट कर ली तब अनंत चौदस के दिन भगवान शंकर ने अपने शरीर के मेल से पुतला बनाकर उसमे प्राण फूंके ! यही माली समाज का आदि पुरुष मनन्दा कहलाया ! इसी तरह माँ पार्वती ने एक सुन्दर कन्या को रूप प्रदान किया जो आदि कन्या सेजा कहलायी ! तत्पश्चात इन्हें स्वर्ण और रजत से निर्मित औजार कस्सी, कुदाली आदि देकर एक सुन्दर बाग़ के निर्माण का कार्य सोंपा! मनन्दा और सेजा ने दिन रात
मेहनत कर निश्चित समय में एक खुबसूरत बाग़ बना दिया जो भगवान शंकर और पार्वती की कल्पना से
भी बेहतर बना था! भगवान शंकर और पार्वती इस खुबसूरत बाग़ को देख कर बहुत प्रसन्न हुये ! तब भगवान शंकर ने कहा आज से तुम्हे माली के रूप में पहचाना जायेगा ! इस तरह दोनों का आपस में विवाह कराकर इस पृथ्वी लोक में अपना काम संभालने को कहा ! आगे चलकर उनके एक पुत्री और बारह पुत्र हुये! जो कुल साड़े बारह ( पुत्री की सन्तानों को आधी जाति में गिना जाता हैं और पुत्रों की सन्तानों को बारह जातियों में गिना जाता हैं ) तरह के माली जाति में विभक्त हो गए! अत: माली समाज को इस उपलक्ष पर अनंत चौदस के दिन माली जयंती अर्थात मानन्दा जयंती मनानी हैं
 "माली जाति उत्पत्ति एंव कृषि"

          माली लोग काश्तकारी यानी खेती करने में ज्यादा होशियार है क्योकिं वे हर तरह का अनाज, साग-पात, फलफूल और पेड़ जो मारवाड़ में होते है, उनको लगाना और तैयार करना जानते है। इसी सबब से इनका दूसरा नाम बागवान है। बागवानी का काम मालियों या मुसलमान बागवानों के सिवाय और कोई नहीं जानता। माली बरखलाफ दूसरे करसों अर्थात् किसानों के अपनी जमीनें हर मौसम में हरीभरी रखते है। उनके खेतों में हमेशा पानी की नहरें बहा करती है और इस लिये ये लोग सजल गॉवों में ज्यादा रहते है। माली लोग अपनी पैदाइश महादेवजी के मैल से बताते है। इनकी मान्यता है कि जब महादेवजी ने अपने रहने के लिये कैलाशवन बनाया तो उसकी हिफाजत के लिये अपने मैल से पुतला बनाकर उस में जान डाल दी और उसका नाम ‘वनमाली’ रखा। फिर उसके दो थोक अर्थात् वनमाली और फूलमाली हो गए। जिन्होनें वन अर्थात् कुदरती जंगलों की हिफाजत की और उनको तरक्की दी, वे वनमाली कहलाये और जिन्होनें अपनी अक्ल और कारीगरी से पड़ी हुई जमीनों में बाग और बगिचे लगाये और उमदा-उमदा फूलफल पैदा किये, उनकी संज्ञा फूलमाली हुई। पीछे से उनमें कुछ छत्री(क्षत्रिय) भी परशुराम के वक्त में मिल गये क्योंकि वे अपने पिता के वध का बैर लेने के लिये पृथ्वी को निछत्री(क्षत्रियविहीन) कर रहे थे।
 मुसलमानों के वक्त में इस कौम की और अधिक तरक्की हुई जबकि उनके डर से बहुत से राजपूत माली बनकर छुटे थे। उस वक्त कदीमी मालियों के लिये ‘मुहुर माली’ का नाम प्रचलित हुआ अर्थात् पहले के जो माली थे, वे महुर माली कहलाने लगे। महुर के मायने पहले के है। महुर माली जोधपुर में बहुत ही कम गिनती के है। वे कभी किसी समय में पूर्व की तरफ से आये थे। बाकी सब उन लोगों की औलाद है जो राजपूतों से माली बने थे इनकी 12 जातियॉ है जिनके नाम कच्छवाहा, पड़ियार, सोलंकी, पंवार, गहलोत, सांखला, तंवर, चौहान, भाटी, राठौड़, देवड़ा और दहिया है। माली समाज अपने विषय में इससे ज्यादा हाल नहीं जानते। ज्यादा जानने के लिये वे अपने भाटों का सहारा लेते है। जोधपुर में ब्रह्मभट्ट नानूराम इस कौम का होशियार भाट है। उसके पास मालियों का बहुत सा पुराना हाल लिखा हुआ है मगर
माली लोग अपनी बेइल्मी के कारण अपने सही और गलत भाटों की सहीं परख नहीं कर पातें। मालियों के भाट उनका सम्बंध देवताओं से जोड़ते है और कहते है कि जब देवताओं और दैत्यों द्वारा समुन्द्र मथने से जहर पैदा हुआ था तो उसकी ज्वाला से लोगों का दम घुटने लगा। महादेव जी उसको पी गये, लेकिन उसे गले से नीचे नहीं उतारा। इस सबब से उनका गला बहुत जलने लगा था जिसकी ठंडक के लिये उन्होने दूब भी बांधी और सांप को भी गले से लपेटा। लेकिन किसी से कुछ आराम न हुआ तब कुबेरजी के बेटे स्वर्ण ने अपने पिता के कहने से कमल के फूलों की माला बनाकर महादेवजी को पहनाई। उससे वह जलन जाती रही। महादेव जी ने खुश होकर स्वर्ण से कहा - हे वीर! तूने मेरे कण्ठ में वनमाला पहलाई है। इस से लोक अब तुझकों वनमाली कहेगे। महादेव जी से स्वर्ण को जब वरदान मिला तो सब देवता और दैत्य बहुत प्रसन्न हुए। उसे वे महावर पुकारने लगे। उन्होने भी उसकी प्रशंसा करके उसे अच्छे-अच्छे वरदान दिये।
"माली जाति की उत्पत्ति एवं विकास"

     मेवाड़ माली समाज के राव श्री प्रभुलाल (मोबाईल-+91 97 83 618 184) मु.पो.- बामनिमा कला, तहसील -रेलमगरा, जिला -राजसमन्द के अनुसार मेवाड़ माली समाज के आदि पुरुष को "आद माली" के नाम से कहा गया है।

     जैसा की पूर्व में उल्लेख किया गया है कि "आद" अथवा "अनाद" शब्द के पर्याय रूप में "मुहार" अथवा "कदम"' शब्द मिलते है जिनका शाबिदक अर्थ होता है 'पुराना अर्थात प्राचीनतम'।

     "माली सैनी दर्पण" के विद्वान लेखक ने पृ. पर लिखा है कि मुहुर अथवा 'माहुर मालियों की सबसे प्राचीनजाति है। इसका सम्बन्ध मेवाड़ के माली समाज से किस प्रकार है। इस पर अध्ययन अपेक्षित है।

     ब्रह्मभट्ट राव के कथानुसार आद माली के 25 पुत्र हुए (किन्तु उनका नामोल्लेख नहीं मिलता है) जिन्होंने कश्मीर में बाग लगाये और लगभग 13वीं शताब्दी में मामा-भाणेज ने सम्भवत: पुष्कर मे अपनी बिरादरी के सदस्यों को चारों दिशाओं से आमंत्रित कर सम्मेलन किया। इस आयोजन में-द्रावट, सौराष्ट्र, पंजाब, मुल्तान, उमर-कश्मीर, मरुधर, थलवट, काठियावाड़, गोडारी, मालवा, गुजरात, हाडोती शेखावाटी, बंगाल, आंतरी, सिन्ध, लोडी, बुन्देलखण्ड, हरियाणा, मदारिया, खेराड़, गौडवाड़, बैराठ, ढूठांड़, अजमेर इकट्टा हुए। इस समारोह के मुख्य अतिथि महाराणा श्री समरसिंह रावल वि.स. थे जिन्हें समाज के मुखिया की ओर से पगड़ी धारण करवायी गयी और श्री महाराणा ने मुखिया को अपनी पगड़ी पहनाई तब से यह समाज "राज. भाई माली" नाम से पहचाना जाने लगा। समय के साथ-साथ राज्य व्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था में बदलाव आता रहा परिणाम स्वरूप हम अज्ञानतावश अपने असतित्व को भूल गये। श्री हीरालाल खर्टिया द्वारा प्राप्त जानकारी के अनुसार महाराणाओं की डोली उठाने के लिये 'कहार भोई' समाज के सदस्यों के साथ माली समाज के युवाओं को भी रात में घेरा डालकर दरबार में ले जाया जाता था और उनसे 'डोली उठाने का कार्य करवाया जाता था। शिक्षा और आर्थिक दृषिट से पिछड़े हुए इस समाज ने समय के साथ समझौता कर सब कुछ स्वीकार किया। यह समाज 'राज-भाई माली' के बजाय 'राज-भोई-माली' के नाम से पुकारा जाने लगा। मेरे अनुभव व जानकारी के अनुसार 1975 के दशक तक इस समाज के सदस्यों को 'राज भोई माली' नाम से पुकारा जाता था। धीरे-धीरे भोई-माली और दक्षिण राजस्थान के डूंगरपुर-बाँसवाडा जिले में यह जाति 'भोई' शब्द से जानी जाती है। माली समाज प्रगति संघ ने अपनी पहचान को कायम रखने के लिये 1994 में आयोजित प्रदेश स्तरीय सम्मेलन में अपनी पहचान के रूप में 'माली'शब्द का उपयोग करने का निर्णय लिया।

     संवत् 1257 में पुष्करजी में हुए सम्मेलन में जाति की पहचान के लिये- कुछ मर्यादा(नियम) तय की गयी ये जिनमें नियम नं. 16 में तय किया गया की समाज के सदस्य 'भोई' का कार्य नहीं करेगें। डोली न उठावें व मछली न पकड़े। 28जनवरी1959 में माली समाज, उदयपुर के सम्मेलन में नाम के साथ 'भोई' शब्द न लगाने का निर्णय लिया गया।

     संघ द्वारा दिनांक 5 मई 2009 में 'बेणेश्वरधाम' में आयोजित वागड़ सम्मेलन में सचिव डा. विष्णु तलाच ने समाज का पूर्व उल्लेख करते हुए वागड़ के सभी भाई-बहनों को मुख्यधारा से जुड़ने का आग्रह किया। राव की पोथी के विवरणानुसार 'राजमाली' समाज की 7 खांप 84 गौत्र का विवरण निम्नानुसार है-

खांप गौत्र
1. चौहान~ अजमेरा, खर्टिया, दुगारिया, बडोदिया,
माणगाया, डामरिया, मौरी, भेली, टांक, धोलासिया,
धनोपिया, कराडिया

2. राठोड़~ सरोल्या, दूणिया, असावरा, तलाच, हिण्डोलिया, अण्डेरिया, जाजपुरिया, मगाणिया, मंगरोला (मंगरूपा), खूर्रिया, खमनोरा, रातलिया

3. पंवार~ पाडोलिया, पवेडा, परवाल, पाहया, पानडिया, परखण, लोलगपुरा, सजेत्या, धरावणिया, चुसरा, महनाला (मेहन्दाला), ठलका

4. गहलोत~ मण्डावरा, वडेरा, बडाण्या, बरस, वगेरवाल
वगोरिया, बलेणिडया, डागर, सोहित्या, बडगुजर, भदेसरया, कनोजा

5. सौलंकी~ रिछा, जेतल्या, कालडाखा, काकसणिया,
ठाकरिया, सरोल्या, चन्दवाडया, रणथम्बा, मुवाला, पालका, मोरी

6. तंवर~ गौड़ा, गांछा, आकड़, उसकल्या, कुकडया, भमिया, मेकालिया, दालोटा, कनस्या, कांकरूणा, धाखा, सोपरिया।

7. परिहार जातरा, गुणिया, डुगलिया, गुणन्दा, सुखला, हेड़ा, बनारिक्या, भीमलपुरिया, पानडिया, भातरा, कच्छावा।

     सन् 2009 में संघ द्वारा माली समाज का सामाजिक सर्वेक्षण करवाया गया प्राप्त जानकारी के अनुसार उदयपुर शहर में 42 गौत्र के परिवार पंजिकृत है जिनका विवरण निम्नानुसार है -

1. असावरा
2. जाजपुरिया
3. सुंगलिया
4. धरावणिया
5. तलाच
6. खमनोरा
7. खर्टिया
8. टांक
9. घासी
10. ड़ामटिया
11. धोलासिया
12. धोरिया
13. पथेरा
14. मेकालिया
15. परखण
16. परमार
17. कराडिया
18. पाडोलिया
19. पानडिया
20. बडोदिया
21. बुगलिया
22. मण्डावरा
23. भमिया
24. मुवाला
25. रातलिया
26. रेमतिया
27. रिछिया
28. वडेरा
29. वगेरवाल
30. वलेणिडया
31. सोइतिया
32. हिण्डोलिया
33. पारोलिया
34. घनोपिया
35. बूटिया
36. लोडियाणा
37. मालविया राठौड़
38. मुवाला
39. मतारिया चौहान
40. दूणिया
41. डगारिया
42. खुरया

     उपयुक्त विवरण में प्राप्त आंकड़ों के अध्ययन से संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है?
आशा है आने वाली युवा पीढ़ी इस दिशा में आगे कार्य करेगी।


परमेश्वर दुगारिया