मंगलवार, 14 फ़रवरी 2017

मौर्य साम्राज्य  

ईसा पूर्व 326 में सिकन्दर की सेनाएँ पंजाब के विभिन्न राज्यों में विध्वंसक युद्धों में व्यस्त थीं। मध्यप्रदेश और बिहार में नंद वंश का राजा धननंद शासन कर रहा था। सिकन्दर के आक्रमण से देश के लिए संकट पैदा हो गया था। धननंद का सौभाग्य था कि वह इस आक्रमण से बच गया। यह कहना कठिन है कि देश की रक्षा का मौक़ा पड़ने पर नंद सम्राट यूनानियों को पीछे हटाने में समर्थ होता या नहीं। मगध के शासक के पास विशाल सेना अवश्य थी किन्तु जनता का सहयोग उसे प्राप्त नहीं था। प्रजा उसके अत्याचारों से पीड़ित थी। असह्य कर-भार के कारण राज्य के लोग उससे असंतुष्ट थे। देश को इस समय एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी जो मगध साम्राज्य की रक्षा तथा वृद्धि कर सके। विदेशी आक्रमण से उत्पन्न संकट को दूर करे और देश के विभिन्न भागों को एक शासन-सूत्र में बाँधकर चक्रवर्ती सम्राट के आदर्श को चरितार्थ करे। शीघ्र ही राजनीतिक मंच पर एक ऐसा व्यक्ति प्रकट भी हुआ। इस व्यक्ति का नाम था 'चंद्रगुप्त'। जस्टिन आदि यूनानी विद्वानों ने इसे 'सेन्ड्रोकोट्टस' कहा है। विलियम जोंस पहले विद्वान थे जिन्होंने सेन्ड्रोकोट्टस' की पहचान भारतीय ग्रंथों के 'चंद्रगुप्त' से की है। 

शासकों की सूची

अशोक के बाद

पुराणों के अनुसार अशोक के बाद कुणाल गद्दी पर बैठा। दिव्यावदान में उसे धर्मविवर्धन कहा गया है, किन्तु अशोक के और भी पुत्र थे। राजतरंगिणी के अनुसार जलौक कश्मीर का स्वतंत्र शासक बन गया। तारनाथ के अनुसार वीरसेन अशोक का पुत्र था, जो गांधार का स्वतंत्र शासक बन गया। इस प्रकार हम देखते हैं कि अशोक की मृत्यु के बाद ही साम्राज्य का विघटन हो गया। कुणाल अंधा था, अतः वह शासन कार्य में असमर्थ था। जैन तथा बौद्ध ग्रंथों के अनुसार शासन की बाग़डोर उसके पुत्र संप्रति के हाथ में थी। इन अनुश्रुतियों के अनुसार संप्रति ही कुणाल का उत्तराधिकारी था। पुराणों तथा 'नागार्जुनी पहाड़ियों की गुफ़ाओं के शिलालेख' के अनुसार दशरथ कुणाल का पुत्र था। नागार्जुनी गुफ़ाओं को दशरथ ने आजीविको को दान में दिया था। इन प्रमाणों के आधार पर यह मत प्रस्तुत किया गया कि मगध साम्राज्य दो भागों में विभक्त हो गया। दशरथ का अधिकार साम्राज्य के पूर्वी भाग में तथा संप्रति का पश्चिमी भाग में था। विष्णु पुराण तथा गार्गी संहिता के अनुसार संप्रति तथा दशरथ के बाद उल्लेखनीय मौर्य शासक 'सालिसुक' था। उसे संप्रति का पुत्र बृहस्पति भी माना जा सकता है। पुराणों में ही नहीं वरन हर्षचरित में भी मगध के अन्तिम सम्राट का नाम 'बृहद्रथ' दिया गया है। इनके अनुसार मौर्य वंश के अन्तिम सम्राट बृहद्रथ की, उसके सेनापति पुष्यमित्र ने हत्या कर दी और स्वयं सिंहासन पर आरूढ़ हो गया।

महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा

अशोक ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया, इस धर्म के उपदेशों को न केवल देश में वरन विदेशों में भी प्रचारित करने के लिए प्रभावशाली क़दम उठाए। अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को अशोक ने इसी कार्य के लिए श्रीलंका भेजा था। अशोक ने अपने कार्यकाल में अनेक शिलालेख खुदवाए जिनमें धर्मोपदेशों को उत्कीर्ण किया गया। राजशक्ति को सर्वप्रथम उसने ही जनकल्याण के विविध कार्यों की ओर अग्रसर किया। अनेक स्तूपों और स्तंभों का निर्माण किया गया। इन्हीं में से सारनाथ का प्रसिद्ध सिंहशीर्ष स्तंभ भी है जो अब भारत के राजचिह्न के रूप में सम्मानित है।

मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण



अशोक के बाद ही मौर्य साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया था और लगभग 50 वर्ष के अन्दर इस साम्राज्य का अंत हो गया। इतने अल्प समय में इतने बड़े साम्राज्य का नष्ट हो जाना एक ऐसी घटना है कि इतिहासकारों में साम्राज्य विनाश के कारणों की जिज्ञासा स्वाभाविक ही है।

मौर्यकालीन भारत



मौर्य साम्राज्य की सामाजिक आर्थिक, शासन प्रबंन्ध तथा धर्म और कला सम्बन्धी जानकारी के लिए कौटिल्य का अर्थशास्त्रमैगस्थनीज़ कृत इंडिका तथा अशोक के अभिलेखों का ठीक से अर्थ लगाया जाए तो पता चलेगा कि वे एक दूसरे के पूरक हैं। रुद्रदामन के जूनागढ़ शिलालेख से भी प्रान्तीय शासन के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। मौर्य काल की जानकारी के लिए अर्थशास्त्र की प्रामाणिकता के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। परम्परागत धारणा के आधार पर इसे चंद्रगुप्त मौर्य के मंत्री चाणक्य (विष्णुगुप्त) द्वारा रचित मानकर ई. पू. चौथी शताब्दी का बताया जाता है। किन्तु वैज्ञानिक ढंग से किए गए आधुनिक शोध ने इस मत के प्रति आशंका व्यक्त की है। इस संदर्भ में ट्रांटमैन के शोधकार्य का उल्लेख अनुचित न होगा। अर्थशास्त्र की शैली के सांख्यकीय विश्लेषण द्वारा उन्होंने स्पष्ट किया है कि इसकी रचना एक युग विशेष में नहीं अपितु विभिन्न शताब्दियों में हुई और इसीलिए यह किसी व्यक्ति विशेष की रचना न होकर विभिन्न हाथों की कृति है। जहाँ कुछ अध्याय मौर्य काल के हैं वहाँ अधिकांश अध्याय ऐसे भी हैं जो तीसरी, चौथी शताब्दी ईस्वी में रचे गए।
कुशवाहा वंश (गोत्र- मानव)

कुशवाहा वँश :-
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( कुशवाहा वंश (गोत्र- मानव):- मानव, कुशवाहा, देशवाल, कौशिक व करकछ
आदिकालीन वंश- सूर्यवंश से उत्पन्न दो राजवंश कुशवाहा तथा गहलोत )
रवा राजपूत में शामिल छ राजवंश तथा समय के साथ पैदा हुई उनकी शाखाऐं इस प्रकार है-

1. आदिकालीन वंश- सूर्यवंश से उत्पन्न दो राजवंश गहलोत तथा कुशवाहा
गहलोत राजवंश का आदिकालिन गोत्र वैशम्पायन है तथा कुशवाहा राजवंश का आदिकालीन गोत्र मानव/मनू है
2. आदिकालीन वंश- चंद्रवंश से उत्पन्न दो राजवंश तॅवर तथा यदुवंश
तॅवर राजवंश का आदिकालिन गोत्र व्यास है तथा यदु राजवंश का आदिकालीन गोत्र अत्रि है

3. आदिकालीन वंश- अग्निवंश से उत्पन्न दो राजवंश चौहान तथा पंवार
चौहान राजवंश का आदिकालिन गोत्र वत्स/वक्च्हस है तथा पॅवार राजवंश का आदिकालीन गोत्र वशिष्ठ है.

शाखाओं का गोत्र के रूप में प्रयोग
उपरोक्त राजवंशो को बाद में आवश्यकता अनुसार कुछ शाखाओं में विभाजित किया गया और दुर्भाग्य से इन शाखाओं का गोत्र के रूप में प्रयोग होने लगा है
गहलोत वश (गोत्र-वैस्पायन):- वैस्पायन, गहलोत, अहाड, बालियान, व ढाकियान
कुशवाहा वंश (गोत्र- मानव):- मानव, कुशवाहा, देशवाल, कौशिक व करकछ
तॅवर वंश (गोत्र-व्यास):- व्यास, तंवर, सूरयाण, माल्हयाण, सूमाल, बहुए, रोझे, रोलियान, चौवियान, खोसे, छनकटे, चौधरान, ठकुरान, पाथरान, गंधर्व, कटोच, बीबे, पांडू, झब्बे, झपाल, संसारिया व कपासिया
यदुवंश (गोत्र-अत्री):- अत्री, यदु, पातलान, खारीया, इन्दारिया, छोकर, व माहियान
चौहान वंश (गोत्र-वत्स):- वत्स, चौहान, खारी या खैर, चंचल, कटारिया, बूढियान, बाडियान या बाढियान, गरूड या गरेड, कन्हैडा या कान्हड, धारिया, दाहिवाल, गांगियान, सहचरान व माकल या माकड या भाकड या बाकड
पंवार वंश (गोत्र-वशिष्ठ):- वशिष्ठ, पंवार, टोंडक, वाशिष्ठान, ओजलान, डाहरिया, उदियान या उडियान, किरणपाल व भतेडे.

उपरोक्त सभी वस्तुत: छ राजवशों की शाखाऐं है परन्तू अव वैवाहिक सुविधा के कारण इनका प्रयोग गोत्र के रूप में भी किया जाता है। वास्तव में ये शाखाऐं गोत्र नही है। इस कारण भूल वश एक गौत्र की अलग अलग शाखा मे ही शादी विवाह होने लगे हैं।
अनेक क्षेत्रों मे इन छ: राजवंशो के राजपूत स्वयं को रवा राजपूत के बजाय अपने राजवश के नाम का सम्बोधन जैसे तंवर, चौहान, पवांर आदि, करते हैं

कोईरी समुदाय वर्तमान मे कुशवाहा

काछी एक हिन्दू जाति है । जो की प्रमुख रूप से नेपालमे तराई मधेस और भारतमे बिहार, राजस्थान व उत्तर प्रदेश राज्यो मे निवास करती है। कोईरी समुदाय वर्तमान मे कुशवाहा नाम से जाना जाता है। कुशवाह समुदाय नेपाल और भारत मे परंपरागत कृषक लोग है, जो मधुमक्खी पालन का कार्य भी करते है। कुशवाहा जाति पौराणिक सूर्यववंशी राजा राम के पुत्र कुश के वंशज होने का दावा करते है। पूर्वकाल मे यह समुदाय शिव व शाक्त का उपासक था।
सम्राट अशोक ‘कुशवाहा’
राष्ट्रवादी और जातिमुक्त राजनीति का ढिंढोरा पीटने वाली भाजपा बिहार विधानसभा चुनाव से पहले सम्राट अशोक की जाति का पता लगा चुकी है. दूसरे दल गौतम बुद्ध, आर्यभट्ट, चाणक्य, परशुराम, लव-कुश और महाराणा प्रताप आदि की जाति खोजने में जुट गए हैं

पिछले दिनों जब बिहार में भाजपा के सहयोग-समर्थन व मार्गदर्शन में चक्रवर्ती सम्राट अशोक की जाति की व्याख्या करते हुए राष्ट्रीय कुशवाहा परिषद की ओर से उनका 2320वीं जयंती समारोह (17 मई) मनाने के लिए होर्डिंग लगे और उस पर भाजपा नेताओं की तस्वीरें नजर आईं.
     महान सम्राट अशोक तक को जाति की परिधि में बांधने की कोशिशें हो रही हैं. चक्रवर्ती सम्राट अशोक को कुशवाहा यानी कोईरी जाति की परिधि में कैद कर

विधायक सूरज नंदन प्रसाद कुशवाहा एक ही वाक्य में रोमिला थापर से लेकर आरएस शर्मा जैसे इतिहासकारों के अध्ययन को खारिज कर देते हैं. उनका दावा है कि उनकी पार्टी के पास ठोस सबूत है कि सम्राट अशोक कुशवाहा ही थे

दिल्ली से इतिहासकार रोमिला थापर, जिन्होंने सम्राट अशोक पर विस्तार से अध्ययन कर एक किताब लिखी है. वह कहती रहीं कि अशोक की जाति का कहीं से कोई पता नहीं चलता. पटना निवासी प्रख्यात इतिहासकार आरएस शर्मा के अध्ययन संदर्भों का उदाहरण देकर पटना के ही इतिहासकार राजेश्वर प्रसाद सिंह कहते रहे कि अशोक के पूर्वज चंद्रगुप्त मौर्य का जन्म एक शूद्र दासी की कोख से हुआ था, इसलिए उनके कुशवाहा होने का तो सवाल नहीं. दूसरी तरफ पटना में इतिहास पढ़ाने वाले विधायक सूरज नंदन प्रसाद कुशवाहा जैसे भाजपा के बौद्धिक चिंतक यह कहकर एक ही वाक्य में रोमिला थापर से लेकर आरएस शर्मा जैसे इतिहासकारों के अध्ययन को खारिज करते रहे कि उनकी पार्टी के पास ठोस सबूत है कि सम्राट अशोक कुशवाहा ही थे.

 अशोक पर तो कुशवाहा समाज पहले से दावेदारी करता ही रहा है. समाज उनके नाम पर आयोजन भी करता-कराता रहता था. जल्द ही अशोक कुशवाहा समाज के एक बड़े हिस्से के नायक हो जाएंगे.

भाजपा के एक वरिष्ठ नेता इसे ऐसे समझाते हैं, ‘देखिए, बिहार में वर्षों से लव-कुश समीकरण चल रहा है. यह दो जातियों कोईरी और कुर्मी के मेल-मिलाप वाला समीकरण है. इसके चैंपियन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार माने जाते रहे हैं. हालांकि पिछले लोकसभा चुनाव में इस समीकरण से उनका गणित हल नहीं हो सका.’ इस पर वह सवाल उठाते हुए पूछते हैं, ‘बताइए लव और कुश, दोनों भाई, दोनों क्षत्रीय कुल के रामचंद्र के वंशज, तो भला उनमें से एक कुर्मी और दूसरा कोईरी कैसे बन गया.
‘सम्राट अशोक वाले मामले को गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं. लोकसभा चुनाव में कोईरी-कुर्मी गठजोड़ को  उपेंद्र कुशवाहा जैसे नेता को आगे कर के तोड़ा जा चुका है.
सम्राट वाला फॉर्मूला निकाला गया है. पटना में अशोक की प्रतिमा भी लगाने को कह रहे हैं.

‘बिहार में वर्षों से लव-कुश समीकरण चल रहा है. बताइए लव और कुश, दोनों भाई, दोनों क्षत्रिय कुल के रामचंद्र के वंशज, तो भला उनमें से एक कुर्मी और दूसरा कोईरी कैसे बन गया’

संयोग से उनसे पटना के होटल अशोक की लॉबी में ही बात हो रही थी. भाजपा आज अशोक की जाति खोजने के बाद उनकी प्रतिमा लगा देने को बेताब और बेचैन है. सिक्के का दूसरा पहलू ये है कि बिहार में तकरीबन आठ सालों तक सत्ता में रहने के बावजूद अशोक के नाम पर इस इकलौते सरकारी होटल का उद्धार नहीं कराया जा सका और न ही भाजपा ने कभी इस बारे में बात की. इतना ही नहीं अशोक के नाम पर पटना में एक मुख्य सड़क ‘अशोक राजपथ’ की दशा सुधारने की चिंता भी किसी ने कभी व्यक्त नहीं की.

 हर जाति में. 30 के दशक में ही त्रिवेणी संघ बना था, जिसमें कुर्मी और कोईरी जैसी जातियों ने कुर्मी क्षत्रीय और कुशवाहा क्षित्रय बनने का आंदोलन चलाया था. तब वे क्षत्रीय बनकर सत्ता और संपत्ति में अपना हक पाना चाहते थे. इसमें वे सफल भी हुए. संपत्ति में हिस्सेदारी हुई और अब सत्ता में हिस्सेदारी के लिए ये प्रपंच किया जा रहा है.’ वह कहते हैं, ‘पिछड़ी जातियों में यादव और कुर्मी द्वारा सत्ता पाने के बाद अब कुशवाहा समुदाय को भी यह लगता है कि वे भी इसके हकदार हैं. इसके लिए सम्राट अशोक जैसे नाम से खुद को जोड़ने से यह भाव उपजाने की कोशिश होगी कि यह जाति सबसे बड़े सम्राट की जाति का है. वह सत्ता संभालने के लायक है और आगे के लिए स्वाभाविक दावेदार है.’ सुमन बताते हैं कि राजनीति में यह सब चलता रहता है. मौर्य और अशोक को लेकर कुशवाहा समाज का एक बड़ा हिस्सा वर्षों से यह सब करता रहा है.

 इतिहास के पन्नों को पलटकर देखें तो बिहार में कुशवाहा समुदाय ऐसा पहली बार नहीं कर रहा. न ही पहली बार ऐसा हुआ है कि कुशवाहा परिषद जैसी संस्था को सामने कर,  कुर्मी चेतना रैली आदि नीतीश कुमार के जीवन का प्रमुख टर्निंग प्वाइंट रहा है. इसके अलावा कुर्मी समाज द्वारा पटेल को अपनी जाति के खाके में कैद करने का अभियान भी चर्चित मामला रहा है. वीर कुंवर सिंह को राजपूतों द्वारा अपनी जाति की परिधि में कैद करने के लिए उनके नाम से संगठन बनाकर जयंती-पुण्यतिथि मनाने का रिवाज अब पुराना हो चला है. निषादों द्वारा रामायण के निषाद से लेकर वेदव्यास तक को अपनी जाति का मानना और अपने सामर्थ्य के हिसाब से इसे उभारने की कोशिश करना भी बिहार की राजनीति का ही एक हिस्सा है.
मौर्यवंश और जाति अस्मिता का प्रश्‍न
सारा खेल वर्चस्व का है। दूसरों को नीच और नालायक साबित कर कैसे अपनी प्रासंगिकता बनाए रखी जाए, यही इतिहास लेखन की मूल चेतना रही है

- अरविंद कुमार
वण-र्आधारित सामाजिक विभेद का प्रारंभ ऋग्वैदिक काल से ही देखा जा सकता है। ऋग्वेद के दसवें मंडल में चार वर्णों -शूद्र, क्षत्रिय, वैश्य एवं ब्राह्मण का उल्लेख है। समय के प्रवाह के साथ, वर्ण जातियों में बँट गए और जातियाँ उपजातियों में। हमें हमारी जाति जन्म से मिलती है और हम अपनी इच्छा से हम इसे छोड़ नहीं सकते। धर्म बदला जा सकता है लेकिन जाति नहीं। यही कारण है कि जातिप्रथा के मुखर विरोध के बावजूद, सबके अंतरूकरण में यह अस्मिता की मूलभूत इकाई के रूप में मौजूद है।

वर्चस्व का खेल और इतिहास लेखन

मनुष्य के विकास के लिए सबसे जरुरी है आत्मविश्वास। मनोबल से असंभव कार्य भी सिद्ध किए जा सकते हैं। यही कारण है कि लम्बी अवधि तक शासन करते रहने के लिएए शासक वर्ग सर्वप्रथम, शासितों के आत्मविश्वास को कमजोर करता है। इसके लिए वह ऐतिहासिक, भौगोलिक और सांस्कृतिक तर्क प्रस्तुत करता है, फिर चाहे वे कपोल कल्पित ही क्यों न हों। आधुनिक काल में यही प्रयास अंग्रेजों ने किया तथा प्राचीन काल में ब्राह्मणों ने। अंग्रेजों से मुकाबले के लिए लोगों में आत्मगौरव और राष्ट्रगौरव का भाव भरने के लिए जब जयशंकर प्रसाद चन्द्रगुप्त मौर्य की शरण में जाते हैं तो वे मुक्तिगामी एवं युगपुरुष कहलाते हैं। परन्तु ब्राह्मणों एवं उनसे व्युत्पन्न जातियों से मुकाबले के लिए ऐसा ही प्रयास कोई अन्य करता है तो वह हास्य एवं आश्चर्य का विषय बन जाता है।

दरअसल, सारा खेल वर्चस्व का है। दूसरों को नीच और नालायक साबित कर कैसे अपनी प्रासंगिकता बनाए रखी जाए, यही इतिहास लेखन की मूल चेतना रही है। जिस प्रकार अंग्रेजों का ऐसा व्यवहार आश्चर्य का विषय नहीं है, उसी प्रकार भारतीय इतिहासकारों का यहे प्रयास भी आश्चर्य का विषय नहीं है। भारत में इतिहास के शोध और लेखन में रत इतिहासकारों में से अधिकतर तथाकथित उच्च जातियों से संबंधित हैं। वे सिर्फ ऐसे विषयों पर शोध करते हैं, जो उनके अनुकूल हों और तथ्यों को अपने पक्ष में तोड़मरोड़ भी लेते हैं। तमाम बौद्ध एवं जैन ग्रंथों में चन्द्रगुप्त मौर्य को क्षत्रिय बताये जाने के बाद भी ब्राह्मण ग्रंथों के आधार पर उन्हें शूद्र क्यों मान लिया जाता है। बिना किसी तार्किक-वैज्ञानिक आधार के हर इतिहास की पुस्तक में यह क्यों लिखा रहता है कि ‘ऐसा माना गया है कि ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य तथा पैर से शूद्र की उत्पति हुई है’। दरअसल, प्राचीनकाल से आज तक, जब भी ब्राह्मणों द्वारा इतिहास लिखा गया, हर उस जाति को पतित घोषित करने का प्रयास किया गया, जो ब्राह्मणों के विरोध में थी या उनके विरोधियों का समर्थन करती थी। यही कारण है की जब मौर्य वंश के शासक,ब्राह्मणों के विरोधी सम्प्रदायों-जैन, बौद्ध, आजीवक आदि का समर्थन करने लगे तो उन्हें अधम और नीच साबित करने के लिए शूद्र कहा जाने लगा। चन्द्रगुप्त मौर्य के मुकाबले चाणक्य के व्यक्तित्व को इतना बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया गया मानो मौर्य वंश की स्थापना का सारा श्रेय चाणक्य (जो ब्राह्मण थे) को ही हो। आज जब हम इतिहास लेखन की बारीकियों को समझने लगे हैं तो ऐसी स्थापनाओं पर हमें हँसी भी आती है और रोष भी।

ज़मीनी हकीकत

इस आलेख में कुशवाहा जाति के मौर्यवंशीय संबंधों की पड़ताल के बहाने जातिगत अस्मिता के प्रश्न को उठाने का प्रयास किया जा रहा है। यह विषय इसलिए प्रासंगिक बन गया है क्योंकि कुशवाहा जाति के इस दावे, कि चन्द्रगुप्त मौर्य उनके पूर्वज थे, के विरोध में बिना कोई शोध किए एक व्यंग्यात्मक लेख ‘द टेलीग्राफ’ के 9 दिसम्बर 2014 के ई.पेपर (www.telegraphindia.com|1141210|) में प्रकाशित हुआ है। लेख में कहा गया है कि जब प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर को बताया गया कि कुशवाहा जाति खुद को चन्द्रगुप्त मौर्य का वंशज मानती है, तो उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया। उन्होंने यह भी कहा कि चन्द्रगुप्त मौर्य के बचपन और पूवर्जों के सम्बन्ध में बहुत कम जानकारी हमें उपलब्ध है। चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहण की तिथि को लेकर भी विवाद है। इसी लेख में पटना विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एस.एस.सिंह को यह कहते हुए उद्धृत किया गया है कि चन्द्रगुप्त मौर्य किस जाति के थे, इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। केवल यह जानकारी मिली है कि वे निम्न जाति में जन्मे थे।

Chandragupt_maurya_Birla_mandir_6_dec_2009_31_cropped copyउपर्युक्त दोनों इतिहासकारों के विचारों को पढऩे से प्रतीत होता है कि उन्हें जानकारियों की कमी है। इस दिशा में पर्याप्त शोध नहीं हुए हैं। चन्द्रगुप्त मौर्य के पूर्वज कौन थे तथा उनके बाद की पीढिय़ाँ कौन थीं, यह शोध का विषय है। यदि शोध के द्वारा किसी ने यह प्रमाणित किया है कि कुशवाहा जाति के पूर्वज मौर्य वंश के शासक थे तो उसे प्रकाशित किया जाना चाहिए। यदि पर्याप्त शोध नहीं हुआ है, तो इस जाति के इतिहासकारों का कर्तव्य है कि इस विषय में शोध करें तथा प्रमाण के साथ तथ्य प्रस्तुत करें। इतिहास का विद्यार्थी न होने के बावजूद, सतही तौर पर मुझे जो दिखाई देता है उससे यही प्रतीत होता है कि कुशवाहा जाति के इस दावे को सिरे से ख़ारिज नहीं किया जा सकता। क्षेत्र-अध्ययन किसी भी परिकल्पना को सिद्ध करने की सटीक एवं वैज्ञानिक पद्धति है। यदि हम मौर्य साम्राज्य से जुड़े या बुद्धकाल के प्रमुख स्थलों का अवलोकन करें तो पायेगें कि इन क्षेत्रों में कुशवाहा जाति की खासी आबादी है। 1908 में किये गए एक सर्वेक्षण में भी यह बात सामने आई थी कि कुम्हरार (पाटलिपुत्र), जहाँ मौर्य साम्राज्य के राजप्रासाद थे, उससे सटे क्षेत्र में कुशवाहों के अनेक गाँव ,यथा कुम्हरार खास, संदलपुर, तुलसीमंडीए रानीपुर आदि हैं, तथा तब इन गाँवों में 70 से 80 प्रतिशत जनसँख्या कुशवाहा जाति की थी। प्राचीन साम्राज्यों की राजधानियों के आसपास इस जाति का जनसंख्या घनत्व अधिक रहा है। उदन्तपुरी (वर्तमान बिहारशरीफ शहर एवं उससे सटे विभिन्न गाँव) में सर्वाधिक जनसंख्या इसी जाति की है। राजगीर के आसपास कई गाँव (यथा राजगीर खास, पिलकी महदेवा, सकरी, बरनौसा, लोदीपुर आदि) भी इस जाति से संबंधित हैं। प्राचीन वैशाली गणराज्य की परिसीमा में भी इस जाति की जनसंख्या अधिक है। बुद्ध से जुड़े स्थलों पर इस जाति का आधिक्य है यथा कुशीनगर, बोधगया, सारनाथ आदि। नालंदा विश्वविद्यालय के खंडहरों के आसपास भी इस जाति के अनेक गाँव हैं यथा कपटिया, जुआफर, कपटसरी, बडगाँव, मोहनबिगहा आदि। उपर्युक्त उदाहरणों से यह प्रतीत होता है कि यह जाति प्राचीनकाल में शासक वर्ग से संबंधित थी तथा नगरों में रहती थी। इनके खेत प्राय: नगरों के नज़दीक थे अत: नगरीय आवश्यकता की पूर्ति हेतु ये कालांतर में साग-सब्जी एवं फलों की खेती करने लग। आज भी इस जाति का मुख्य पेशा साग-सब्जी एवं फलोत्पादन माना जाता है। इस जाति की आर्थिक-सामाजिक परिस्थिति में कब और कैसे गिरावट आई, यह भी शोध का विषय है। राजपूत और कायस्थ जातियों का उदय 1000 ई. के आसपास माना जाता है। राजपूत, मध्यकाल में शासक वर्ग के रूप में स्थापित हुए तथा क्षत्रिय कहलाए। प्रश्न उठता है राजपूतों के उदय से पूर्व और विशेषकर ईसा पूर्व काल में क्षत्रिय कौन थे? स्पष्ट है वर्तमान दलित या पिछड़ी जातियाँ ही तब क्षत्रिय रहीं होंगी। इतिहास बताता है कि जिस शासक वर्ग ने ब्राह्मणों को सम्मान दिया तथा उन्हें आर्थिक लाभ पहुँचाया, वे क्षत्रिय कहलाए तथा जिसने उनकी अवहेलना की या विरोध किया, शूद्र कहलाये। यदि आज इन जातियों द्वारा अपनी क्षत्रिय विरासत पर दावा किया जा रहा है तो तथाकथित उच्च जातियों के लोगों को आश्चर्य क्यों होना चाहिए?

जातिगत पहचान और आत्मगौरव

इस लेख में पिछड़ी या दलित जातियों को क्षत्रिय साबित करने का यह अर्थ नहीं है कि मैं हिन्दू धर्म की वर्णाश्रम व्यवस्था में विश्वास रखता हूँ तथा किसी जाति को क्षत्रिय साबित कर उसे ‘ऊंचा दर्जा’ देना चाहता हूँ। मेरा उद्देश्य यह स्पष्ट करना है कि कोई भी जाति या वर्ण जन्म से आज तक शूद्र के रूप में मौजूद नहीं है। आर्थिक एवं राजनैतिक स्थिति में बदलाव के साथ उसकी सामाजिक हैसियत में भी बदलाव हुए हैं। ऐसी स्थिति में आज हम जिस भी जाति या वर्ण में पैदा हुए हैं, उसके लिए हममें हीनताबोध क्यों पैदा किया जाता है? जाति को आधार बनाकर हमारे आत्मगौरव एवं आत्मसम्मान को कुचलने की कोशिश क्यों की जाती है? यदि ऐसा किया जाता है तो हम दो तरीकों से उसका जबाव दे सकते हैं। एक तो ‘संस्कृतिकरण’ के जरिए अर्थात खुद को अपनी प्राचीन संस्कृति के उज्ज्वलतम अंश से जोड़कर। दूसरा,अपनी वर्तमान पहचान पर गर्व करके। दूसरे तरीके का बड़ा अच्छा उदाहरण चमार जाति के द्वारा न सिर्फ आधुनिक काल में वरन् मध्यकाल में भी पेश किया गया है। पंजाब में अनेक युवक, जो इस जाति से सम्बद्ध हैं, आज गर्वपूर्वक अपने मोटरबाइक पर अपनी जाति का इजहार करते हुए लिख रहे हैं ‘हैण्डसम चमार’ या ‘चमरा दा पुत्तर’। मध्यकाल में रैदास अपनी जातिगत पहचान के प्रति न सिर्फ मुखर रहे (कह रैदास खलास चमारा) वरन् उसे आत्मगौरव का विषय भी बनाया।

यह आलेख, कुशवाहा जाति के मौर्यवंशीय दावे पर जो प्रश्न खड़े किये गए हैं, उन पर विचार करते हुए मूलत: यह स्पष्ट करने का प्रयास है कि हम चाहे जिस भी जाति में जन्म लें, आत्मगौरव का भाव बनायें रखें, उसके लिए अपने भीतर या बाहर चाहे जैसे भी तर्क गढऩे पड़ें। जाति भले न बदली जा सके, विश्वास बदला जा सकता है। विश्वास चाहे स्वयं का हो या समाज का!

फारवर्ड प्रेस के अगस्त, 2015 अंक में प्रकाशित

आज के वर्तमान युग में प्रत्येक मनुष्य या हर समाज अपने वर्तमन स्तिथि का अवलोकन करतें हुए अपने इतिहास को जानने के लिये उत्सुक रहता है. कि हम कौन थे? हमारे पूर्वज क्या थे? हम किसकी वंशज है? हमारे कल और आज में क्या अंतर है ? इस तरह के प्रश्न आते रहते है.
हम दुनिया के उन पूर्वजों के वंशज है जो योद्धा, समाज सुधारकऔर श्रमशीलता में आज भी किसी से कम नहीं है. ईमानदार, कर्मठ, शांतिप्रिय, न्याय प्रिय, सत्यप्रिय, विनम्र ऐसे समाज में पैदा होने से हम गौरान्वित महसूस करते है.
सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र से लेकर रघुवंश के राजा राम, कुश वैंश के लव-कुश, मौर्य वंश के चंद्रगुप्त मौर्या, यह वंश जिसकी 164 पीढीया इस भारतवर्ष तथा अन्य द्वीपों पर रामायण काल से भी पूर्व से राज करती आ रही है. ईसा पूर्व 56 पीढि़यां में महामानव तथा गौतमबुद्ध ने सर्वप्रथम मानवता, सत्यता, न्याय, विश्वबंधुत्व के लिए आंदोलन चलाया. ईसा पूर्व 322 से ईसा पूर्व 185 तक मौर्य वंश के सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य, बिन्दुसर, सम्राट अशोक, दशरथ सम्प्रति, शांतिशक देवधर्मा, शत्धन्वत तथा वृहादरथ ने 137 वर्षो तक भारतवर्ष पर राज्य किया सम्राट .चंद्रगुप्त मौर्य का शासनकाल आज भी इतिहास के पन्नो पर चमक रहा है. हमारे ही पूर्वजों ने ही इस देश को ब्राह्मी लिपि दी जो देवनागरी के रूप में आज भी जानी जाती है.

जलियावाला बाग के जघन्य अपराधी जनरल ओ डायर को गोली से भुनने वाले ऊधम सिंह सैनी भी हमारे समाज के है और हमारा समाज उन पर गर्व करता है और उनके शहादत को नमन करता है. इसी इतिहास के पन्नो पर हमारे समाज के गौरव महात्मा ज्योतिबा फुले व माता सावित्री बाईं फुले जिनके कल्याणकारी कार्यों ने इतिहास रच दिया है. जिन्हें महात्मा गाँधी ने अपना मार्गदर्शक व डो भीमराव अंबेडकर ने अपना गुरु माना, जिसे पूरा समाज गर्व करता है.

इस प्रकार हम उपरोक्त वंशजों के एक ही जाति के विभिन्न उपजातियों में भिन्न – भिन्न जगहों पर फैले हुए है चाहे पंजाब में सैनी के रूप में, उत्तरप्रदेश में मौर्या (मुरवा, मोया), शाक्य (सक्सेना), वर्मा बिहार में महतो, मेहता, सिंह, कुशवाहा (कछावा, काछी) तथा मध्यप्रदेश व छत्तिसगढ में कोसरिया पटेल मरार, अघरिया पटेल मरार, हरदिया पटेल मरार, झिरिया पटेल मरार, सोनकर मरार, माली मरार या अन्य कालिय (कोइरी, कुईरी), सूर्यवंशी, बनाफर, दागी, कन्नौज़िया, गहलोत, मगाधिया, बागवाँ, सखरिया, भदौरिया, राठौर, सोलंकी, राजपूत, जैसवार ये आदि हमारी ही जाति के है.

उपरोक्त जानकारी इतिहास के विभिन्न पुस्तकों से संग्रहणकर संकलित की गई है.

आज हमे जरूरत है अपने समाज को आगे बढाने की, हमारे विजन (लक्ष्य) को पाने की. हमारा विजन है सुन्दर और खुशहालसमाज. चूकि हमारा समाज अन्य समाज से लगभग हर क्षेत्र के हर पायदान पर आगे बढने की दिशा मे भरपूर कोशिश कर रहा है. हमारे समाज के लोगो ने जीवन व्यवस्था को ऊपर उठाने की दिशा मे काय॔ करना प्रारम्भ कर चुके है फिर भी आशातित सफलता नही मिल रही है, इसके अनेक कारण होसकते है. जैसे अधूरा प्लानिंग, अदूर-दर्शिता,लोगो को समझा न पाना, सूचना का अभाव आदि आदि इत्यादि….. सामजिक उत्थान के अग्रदूत बराबर, उनके बैज्ञानिक सामजिक विचारो को मन्थन कर लोगो को पुरानी कुप्रथा से हटाकर नये व्यवस्था मे लाने, खर्चीले सामाजिक और घरेलू कार्यक्रमो को उखाड फेकने, शिक्षा को समाज के कमजोर से कमजोर लोगो तक पहुचाना, शिक्षितो को सरकारी और गैर सरकारी संगठनो मे रोजगार के अवसर को तलाशने ,की दिशा मे हर मोर्चे पर अग्रसर है. मुठ्ठी भर सामजिक वैज्ञानिक सोच भी हमारे समाज की काया पलट कर सकते है जरूरत है सही मार्गदर्शन, सही और जरूरत मन्दो कीपहचान तथा विश्वसनीय सूचनाओ का त्वरित प्रचार. इसी कडी मे सामाजिक गतिविधियो से दूर,समाज के शिक्षित वर्गो मे भी जागृती आयी है. और सूचनाओ के त्वरित प्रसार के लिये इलेक्टॢानिक मिडिया को उपयोग करने का नीव ” ग्रोइंग जनरेशन मरार टोली ” के द्वारा लायी गयी है. इस टोली के द्वारा शिक्षितो को जोडने का काम कुमारी डाली माने के द्वारा शुरू किया गया है. अब इस समूह मे लगभग हर क्षेत्र के मजे हुये लोग समाज के लिये अपना शत प्रतीशत देने के लिये एकदम तैयार है. (भारतेन्द्र पन्चेशवर {प्रबन्धन}, कमल पन्चेशवर व विनोद नागेश्वर {सिविल}, दिनश पन्चेशवर {कृ्षि}, विनोद पाचे, स्वतन्त्रा बाहे, हेमन्त गाडेश्वर { कम्प्यूटर & सूचना प्रणाली }, मनोज व् कैलाश पन्चेशवर {चिकित्सा} , भुपेन्द्र पन्चेश्वर, कमलेश बाहे, यशवन्त खरे, मुकेश भावरे व नरेश जम्भारे{ फार्मा } , प्रानेश कावरे { मेकेनिकल } डाली माने { एकाउन्ट } ) शिक्षा के क्षेत्र मे जमीनीस्तर पर अनेक लोग गाव से लेकर शहर तक है.

कुशवाहा वंशियो का असली इतिहास


HISTORY OF KUSHVAHA CLAN VANSH


कुशवाहा वंशियो का असली इतिहास जानने के बाद  अब समझ में आया की कुशवाहा / मौर्या वंशी 
इतने धार्मिक  और ईमानदार व् सात्विक क्यों होते है, सभी हिन्दुओ में सिर्फ इन्ही की वशावली का जुड़ाव 
श्री राम चंद्र जी के वंशजो तक जाताहै, भारत में अखंड राज करने वाली इन जातियों में आज भी 
सात्विकता का स्तर हर किसी जाति से ज्यादा है और ये लोग सनातन  धर्म के सबसे बड़े वाहक रहे हैं, 
बाद में इनकी अगुआई में बुध्ह धर्म ने बहुत विकास  किया, 
कुशवाहा वंशी कुषाणों का राज्य तो युरप के अरल सागर तक फैला था 
जहा आज किर्गिस्ता और उज्बेकिस्तान है,  जहा बाद में मुस्लिमो के एक तरफ़ा धार्मिक उन्माद
 और नर संहार ने हिंदुकुश के पुरे इलाके से हिन्दुओ का सफाया कर दिया. 
ध्यान रहे, गांधारी का मायका कहा, था...सबको मालूम है , यह इलाका आज कट्टर मुस्लिमो का गढ है,
 जिस बाबर ने हिन्दुओ के कत्ले आम को खुदा का आदेश कहा था,
वह खुद ही ४ करोड लोगो को मार डालने वाले चंगेज खान और हिन्दुओ को थोक के भाव मरने वाले
 तैमूर लंग दोनों के खानदान संबंध रखता है, जिन्हें नेहरू ने इतिहास में महँ योद्धा बता दिया और
 लाखो हिन्दुओ का कत्ले आम करने वाले अकबर के सामने सम्राट अशोक की तर्ज पर
 "महान" शब्द जोड़ दिया. भारत के इतिहास को पुनः लिखने की नितांत आवश्यकता है.
.सात्विकता से जीवन बिताने वाले हिन्दुओ ने इस्लाम सिर्फ इसलिए स्वीकार किया की 
उनकी जान और बहन बेटियों की इज्जत बची रहे,,अधिसंख्य हिन्दुओ ने यातना से बचने के लिए 
अपना धर्म छोड़  दिया लेकिन दगाबाजी नही की...

कुशवाहा/ मौर्य/शाक्य आदि वंशियो के बारे ज्यादातर जानकारी विदेशी इतिहासकारों के पास है 
और इमके बारे में  ज्यादा  जानने के लिए इस साईट को क्लिक करे--


कुशवाहा वंशियो का असली इतिहास जानने के बाद अब समझ में आया की
 कुशवाहा / मौर्या वंशी इतने धार्मिक और ईमानदार व् सात्विक क्यों होते है

कुशवाहा जाति के समकक्ष हैं हार्दिक पटेल

गुजरात के पाटीदार आंदोलन ने हिंदी पट्टी में भी सामाजिक स्‍तर पर एक हलचल ला दी है। हार्दिक पटेल के नेतृत्‍व में चल रहा गुजरात का पाटीदार आंदोलन अपने आप में भ्रमित है। पाटीदार लोग दशकों से वहां ओबीसी के खिलाफ एक आंदोलन चलाते रहे हैं। अब वे स्‍वयं ओबीसी में शामिल होने की मांग कर रहे हैं। यह इसका एक दिलचस्‍प पहलू है। दूसरी ओर जाति के आधार पर  हार्दिक का संबंध कुर्मी जाति से आने वाले मुख्‍यमंत्री  नीतीश कुमार से जोडा जा रहा है। शायद इसी कारण नीतीश कुमार ने भी पाटीदार आंदोलन का समर्थन कर दिया है। लेकिन वास्‍तविकता इससे थोड़ी अलग है। 
(एस रवि, वरीय पत्रकार)
हिंदी क्षेत्र के लिए पाटीदार आंदोलन के मायने
पहले पाटीदारों को जानें। गुजरात की पाटीदार जाति प्राय: ‘पटेल’ सरनेम का उपयोग करती है। वहां इस जाति में चार प्रमुख उपजातियां हैं। ‘लेऊवा (लेवा) पटेल’, ‘कडवा पटेल’, ‘अनजाना पटेल (चौधरी पटेल)’ और ‘मटिया पटेल’। इनमें चौधरी और मटिया पटेल पहले से ही आरक्षण के दायरे में आते हैं। लेऊवा और कडवा पटेलों को आरक्षण से बाहर रखा गया है। अब सवाल यह उठता है कि हिंदी पट्टी में कौन सी जातियां इन पटेलों के समकक्ष हैं?
जातियों के स्रोत
जातियों की समकक्षता ढूढने के चार प्रमुख स्रोत होते हैं। पहला, उनका पारंपरिक पेशा। दूसरा, हिंदू धर्म में लिपटे मिथकों में इन जातियों के उद्भव की कथा। तीसरा, इन जातियों द्वारा स्‍वयं के बारे में किये गये दावे तथा चौथा, विभिन्‍न इतिहासकारों और नृतत्‍वशास्त्रियों द्वारा किये गये भू-क्षेत्रीय अध्‍ययन। इन चारों ही स्रोतों के अध्‍ययन के आधार पर इनमें से लेउवा पटेल हिंदी पट्टी के कुर्मी हैं, जबकि कडवा पटेल कोईरी (कुशवाहा/ सैनी)। लेऊवा बडे जोतदार हैं जबकि कडवा अपेक्षाकृत छोटी जोतों के मालिक हैं। कडवा पटेल का पारंपरिक पेशा सब्‍जी उत्‍पादन व अन्‍य प्रकार का कृषि संबंधित कर्म रहा है। जबकि लेऊवा पटेल पारंपरिक रूप से रक्षा कर्म (क्षत्रीय) से भी जुडे रहे हैं। बाद में वे भी कृषि कर्म से जुडे़। हिंदी पट्टी के कुर्मी और कोईरी की ही तरह, लेउवा खुद का राम के पुत्र लव का वंशज मानते हैं, जबकि कडवा कुश का । लेऊवा शब्‍द लव से बना है, जब‍कि कडवा कुश से। हिंदी पट्टी की ही तरह गुजरात में भी कुर्मियों की हालत कुशवाहों से बेहतर है। (लेऊवा और कडवा पटेल के विस्‍तृत इतिहास के लिए विकीपीडिया देखें)
बिहार से जुड़ाव
पटेलों की उपजाति चौधरी पटेल की स्थिति बिहार, उत्‍तर प्रदेश में पायी जाने वाली उस धानुक जाति के समकक्ष है, जिससे हिंदी के प्रमुख कथाकार फणीश्‍वरनाथ रेणु आते थे। जबकि मटिया पटेल झारखंड की महतो जा‍ति के समकक्ष हैं, जो कि मूल रूप से आदिवासी है। दरअसल, गुजरात का  ‘पटेल’ सरनेम बिहार-झारखंड में प्रचलित ‘महतो’ सरनेम की तरह है, जिनके अंतर्गत कोईरी, कुर्मी, धानुक व झारखंड के आदिवासी महतो भी आते हैं। गुजरात का आरक्षण आंदोलन मुख्‍य रूप से कडवा (कुशवाहा) का है। लेऊवा (कुर्मी) भी उनके साथ हैं।
दरअसल, हिंदी पट्टी में भी कोइरी और कुर्मी जाति पारंपरिक रूप से लेउवा और कडवा की ही तरह एक-दूसरे के हितों से पारस्‍परिक रूप से जुडी थीं, लेकिन आजादी के बाद के वर्षों में कुछ राजनीतिक लोगों के निहित स्‍वार्थों के कारण इन दोनों के बीच दूरी बनी, जिसे मंडलोत्‍तर नेताओं ने और बढ़ाया।
चैनलों ने बतायी जाति
हार्दिक पटेल कडवा पटेल हैं। विभिन्‍न टीवी चैनलों पर भी यह बात बतायी गयी है। यानी, वे हिंदी पट्टी के कुशवाहा हैं। हिंदी पट्टी में कुशवाहों के प्रमुख नेता जगदेव प्रसाद हुए हैं। उत्‍तर प्रदेश के बाबूलाल कुशवाहा हरियाणा के राजकुमार सैनी बिहार के उपेद्र कुशवाहा, प्रेमकुमार मणि, शकुनी चौधरी आदि इसी जाति से आते हैं। 1931 की जनगणना के अनुसार हिंदी पट्टी में कुशवाहा जाति की संख्‍या यादव जा‍ति के बाद सबसे ज्‍यादा है।
यानी, हिंटी पट्टी से हार्दिक पटेल को समर्थन मिलने मतलब है संख्‍या बल में एक बड़ी जाति का समर्थन मिलना। नीतीश कुमार द्वारा दिये गये वक्‍तयों के बाद उन्‍हें कुर्मी जाति समर्थन तो पहले ही हासिल हो गया है। हां, हिंदी पट्टी की कोईरी और कुर्मी जातियों को इस समर्थन से राजनीतिक रूप से क्‍या हासिल  होगा, यह तो आने वाला वक्‍त ही बताएगा।

काछी (कुशवाह) जाति

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से

काछी एक हिन्दू जाति है जो की प्रमुख रूप से बिहारराजस्थान व उत्तर प्रदेश राज्यो मे निवास करती है। काछी समुदाय वर्तमान मे कुशवाह नाम से भी जाना जाता है।
कुशवाह समुदाय भारत मे परंपरागत कृषक लोग है, जो मधुमक्खी पालन का कार्य भी करते है। काछी जाति पारंपरिक तौर पर सब्जियाँ उगाने व बेचने का कार्य करने वाली जाति है।[3] कुशवाह शब्द न्यूनतम चार उपजातियों (काछी, कछवाहा, कोइरी व मुराओ) के लिए प्रयुक्त होता है, जो कि पौराणिक काल्पनिक सूर्यववंशी राजा राम के पुत्र कुश के वंशज होने का काल्पनिक दावा करते है। जब कि पूर्वकाल मे यह समुदाय शिव व शाक्त का उपासक था।

  • उत्पत्ति की दंतकथा

काछी एक बृहद समुदाय का हिस्सा है जो कि समन्वित उद्भव का दावा करते हैं। यह समुदाय कुशवाह नाम से जाना जाता है। आजकल यह समुदाय स्वयं को विष्णु के अवतार भगवान राम के पुत्र कुश के वंशज तथा सूर्यवंश से अवतरित होने का दावा करते हैं, किन्तु यह दावा मात्र एक दंतकथा पर आधारित है। इससे पूर्व कुशवाह समुदाय कि जातियाँ- मौर्य, काछी व कोइरी स्वयं को शिव व शाक्त संप्रदाय से जुड़ा हुआ बताते रहे हैं। वर्ष 1920 मे, गंगा प्रसाद गुप्ता ने दावे के साथ अपना मत व्यक्त किया कि कुशवाह समुदाय हिन्दू कलेंडर के कार्तिक माह मे हनुमान की उपासना करता है, हनुमान को पिंच ने राम व सीता का सच्चा भक्त बताया है।
जनसांख्यिकी
विलियम पिंच के अनुसार यह लोग उत्तर प्रदेश व बिहार मे पाये जाते हैं।

वर्तमान परिस्थितियाँ

भारत की सकारात्मक भेद भाव की व्यवस्था के तहत,1991 मे काछी (कुशवाह) जाति को "अन्य पिछड़ा वर्ग" के रूप मे वर्गीकृत किया गया है। भारत के कुछ राज्यों मे कुशवाह "अत्यंत पिछड़ी जाति" के रूप मे वर्गीकृत किए गए है। वर्ष 2013 मे हरियाणा सरकार ने कुशवाह, कोइरी व मौर्य जातियो को "पिछड़ी जतियों" मे सम्मिलित किया है।

वर्गीकरण

कुशवाह पारंपरिक रूप से किसान थे व लांछित शूद्र वर्ण के माने जाते है. पिंच ने इन्हे कुशल कृषक बताया है। ब्रिटिश शासन के उत्तर दशको मे कुशवाह समुदाय व अन्य जतियों ने ब्रिटिश प्रशासको के समक्ष अपने परंपरागत शूद्र स्तर के विरुद्ध चुनौती प्रस्तुत की व उच्च स्तर की मांग प्रस्तुत की।
काछी व कोइरी दोनों जातियाँ अफीम की खेती मे अपने योगदान के कारण काफी समय से ब्रिटिश शासन के करीब रही थी। करीब 1910 से,इन दोनों ही समूहो ने एक संगठन बनाया और स्वयं को कुशवाह क्षत्रिय बताने लगे। व मुराओ जाति ने 1928 मे क्षत्रिय वर्ण मे पहचान हेतु लिखित याचिका दायर की।
अखिल भारतीय कुशवाह क्षत्रिय महासभा का यह कदम पारंपरिक रूप से शूद्र मानी जाने वाली जातियों द्वारा सामाजिक उत्थान की प्रवृत्ति को दर्शाता है, जिसे एम॰एन॰ श्रीवास ने "संस्कृतिकरण" के रूप मे परिभाषित किया है, जो कि उन्नीसवी सदी के उत्तर व बीसवी सदी के पूर्व मे जातिगत राजनीति का एक लक्षण था।
अखिल भारतीय कुशवाह क्षत्रिय महासभा का यह अतिस्ठान उस वैष्णव विचारधारा पर आधारित था, जिसके अनुसार वह अपने अनुवांशिक शूद्र सदृश मजदूरी के पेशे के वावजूद जनेऊ धरण करने की स्वतन्त्रता देता है व भगवान राम व कृष्ण की उपासना करने व उनके क्षत्रिय वंश के वंशज होने के दावे को माध्यम देता है। इस अतिस्ठान के फलस्वरूप उन्होने भगवान शिव से अवतरित होने के अपने पुराने दावे को छोडकर, भगवान राम का वंशज होने का वैकल्पिक दावा किया 1921 मे, कुशवाह क्रांति के समर्थक गंगा प्रसाद गुप्ता ने कोइरी, काछी, मुराओ व कछवाहा जातियों के क्षत्रिय होने के साक्ष्यों पर एक पुस्तक प्रकाशित की। उनके द्वारा इतिहास की पुनरसंरचना मे तर्क दिया गया कि कुशवाह कुश के वंशज है व बारहवी शताब्दी मे दिल्ली सल्तनत के मुस्लिम सुदृणीकरण के समय राजा जयचन्द को इन्होंने सैन्य सेवाए प्रदान की थी। बाद मे विजयी मुस्लिमो के कारण कुशवाह समुदाय तितर बितर होकर अपनी पहचान भूल गया व जनेऊ आदि परंपराए त्याग कर निम्न स्तर के अलग अलग नामो के स्थानीय समुदायो मे विभाजित हो गया।गुप्ता व अन्य की विभिन्न जतियों के क्षत्रिय प्रमाण के इतिहास लिखने की इस आम कोशिश का जातीय संगठनो द्वारा प्रसार किया गया, जिसे दीपान्कर गुप्ता 'शहरी राजनैतिक शिष्ट' व 'अल्पशिक्षित ग्रामीणो' के मध्य संबंध स्थापना के रूप मे देखते है। कुछ जतियों ने इस क्षत्रित्व के दावे के समर्थन मे मंदिर निर्माण भी करवाए, जैसे कि मुराओ लोगो के अयोध्या मे मंदिर।
कुछ कुशवाह सुधारकों ने कुर्मी सुधारक देवी प्रसाद सिन्हा चौधरी के तर्ज पर यह तर्क दिया कि राजपूत, भूमिहार व ब्राह्मण भी खेतो मे श्रम करते है, अतः श्रम कार्य मे लग्न होने का शूद्र वर्ण से कोई संबंध नही जोड़ा जा सकता है।

काछी जाति की उत्पति के बारे में एक वेबसाईट ने इस प्रकार लिखा है -

काछी एक बृहद समुदाय का हिस्सा है जो कि समन्वित उद्भव का 
दावा करते हैं। यह समुदाय कुशवाह नाम से जाना जाता है। 
आजकल यह समुदाय स्वयं को विष्णु के अवतार भगवान राम के 
पुत्र कुश के वंशज  तथा सूर्यवंश से अवतरित होने का दावा करते हैं, किन्तु यह दावा मात्र एक दंतकथा पर आधारित है।
इससे पूर्व कुशवाह समुदाय कि जातियाँ- मौर्य, काछी व कोइरी स्वयं को शिव व शाक्त संप्रदाय से जुड़ा हुआ बताते रहे हैं। 
कुशवाह समुदाय हिन्दू कलेंडर के कार्तिक माह मे हनुमान की उपासना करता है, हनुमान को पिंच ने राम व सीता का सच्चा भक्त बताया है।

History of Reddys

Reddy is the name of a socio-economically and politically dominant caste found in Southern India. Reddy caste has this great history and the various people from this cast has helped people in large way throughout the ages. The largest single community grouping in Andhra Pradesh today is of the Reddi community. The name is also written in English as Reddy.
Reddy community found all over Andhra Pradesh and the neighboring states Karnataka, Tamil Nadu and Maharashtra. In Andhra Pradesh, the Reddy’s are considered traditional village headmen. The duties of headmen included the collection of tax, guarding the village and basically representing the village in dealing with outsiders or even the government. Physically they are very well built and strong, 'solid farmer stock' according to some english observers, and they retain a residual military -aristocratic tradition.
Several members of the community are very wealthy landowners and businesmen. Reddys regard Andhra Pradesh as their homeland and telugu is their mother tongue. It was in reddies kingdom Telugu language developed. However they form an intricate part of Karnataka, Tamil Nadu, and Maharastra society as well and are proficient in those languages too. Many Reddys migrated to tamilnadu centuries ago and have formed a distinct community that is completely incorporated into andhra culture and doesn't necessarily feel a closer affinity to their Andhra cousins.
In most areas of Andhra Pradesh, in the small villages it is the Reddy who speaks authoritatively on behalf of the village: they are the traditional “leaders” of the village. But this is changing fast. Younger members are losing interest in living in rural areas and striking out to work in towns …even to the USA.
There are various sects/clans among the reddis. The ones I could get some details about are the Panta reddis, including the Velanadu , Paakanadu and Motati Reddys ( these are old geographical areas) i.e. the Krishna-Guntur , Nellore and Chittoor Reddis and upland area. In Telangana there are the the Keti Reddis, There are other subdivisions but I am still collecting information.
Roots of the Reddis:
The Reddis do not constitute a ethnic group, really. There are several strands which go to make the Reddis of today. They appear to be basically Deccan plateau inhabitants, which includes Maharashtra, Karnataka and Andhra. Another point to note, in several areas the term Reddi was treated as a sort of title for anyone who was appointed as village headman. Usually this meant a soldier, who got along fine with the other headmen. Gradually the descendants would be absorbed into the larger Reddi grouping.
The earliest reference we have to anyone resembling the Reddis are the Rathis and the Maha rathis before 200 BC. These kings ruled over small principalities in the Deccan plateau area of Maharashtra, Karnataka and Andhra before the Satavahanas and mauryas. They have left coins in northern Andhra Pradesh, also in Kurnool district, and near Pune etc. The coins are found in the levels between the megalithic and satavahana levels in excavations. The term Rathi might refer to "one riding a chariot" (Ratha=horse drawn chariot in prakrit and old sanskrit). A grander Rathi king might be called Maha rathi. Actually this "Rathi" can be traced directly to the people riding horse drawn chariot during the time of the rgveda and avesta ( 'rathaesthar' in avestan), but I dont have any specific evidence linking today's Reddis so far back in time. Could be some connection, of course.
The Satavahanas intermarried with the maharathis. Sri Satakarni married Naaganika Devi, daughter of a maha rathi.(221 -198 BC). The Satavahanas ruled over Malwa and parts of Gujarat as well and clashed with the Sakas -Pahlavas (scythians and pallavas) but eventually intermarried with them. The Deccan was covered with thick forests, only scattered areas were under agriculture, and that too likely slash and burn primitive agriculture. Castes and communities were still forming. Even feudalism hadn't really developed in those days, the tribal structure was slowly dissolving with the influence of Buddhism. So one shouldn't take the caste thing too seriously.
The Reddis in the Telangana region were active in the kakatiya kingdom. (AD 1000-1223). They were knights and barons and subordinate kings who ruled regions, in turn they had to pay taxes/ a part of the plunder and organise troops for campaigns. Several large dams and lakes and large sized wells were constructed by the reddis of the time, and they still serve their purpose as planned a thousand years ago.
After the kakatiya kingdom broke up, many Reddis migrated to coastal Andhra---Addanki and Kondaveedu, and later Rajahmundry on the Godavari and founded their own independent kingdoms which flourished between 1325-1448 AD. Komati Prolaya Vemareddy , son of Komati Prola reddy founded this kingdom . There are foolish elaborate explanations of why the name Komdi or Komati was their surname (apart from silly fake legends, there is an attempt to discover some "Jain goddess").
One actual very simple reason, which seems to have escaped scholars, is Komdi or Komda is a name of a tribal deity Kumara, Kumra, Kartikeya, Mayura, Mora, Velan, Murugan--- the warlike son of Siva. A merchant community called komati also is derived from this ancient name, while they have very little to do with reddis. There is one more derivation --from Kumuda , Khumdi, Cimmerian which also rings true.
While the area and extent may not have been large, these Reddi Raja states are historically significant because Telugu literature got a strong impetus. Vemareddi has left many inscriptions, the well preserved ones detailing the repairs he made to temples like Srisailam and Ahobilam and Drakshaaram.
During the Vijayanagar empire (roughly 1300 -1600 AD) too they were prominent especially in Rayalseema, where they became independent zamindars or landholders and were constantly engaged in clan feuding. (the feuds continue to this day). The Rayalseema reddis are closely related to the landlord Gowdas of karnataka and the Reddiars of Tamilnadu. There are also a few Reddi principalities which managed to survive independently between large warring states, in Mahabubnagar district (Old Palamoor) like Gadwal and Wanaparthi. The Reddis around these areas have a tradition they are descended from ancient Chalukya ancestors.
Reddis are also prominent in Nellore and Chittoor district also. ---(some claim they are descended from pallava ancestors, but proof is lacking). In these areas, during British times they often visited closeby Madras, took to modern education in the Madras presidency, and also joined the military.
In the Golkonda region, all during the Turkish rule and recent Nizams too , the Reddis continued to be headmen, village policemen and tax collectors and farmers. The larger Reddi landlords were styled as Desais and Doras. (and continued their bitter nine-hundred year old rivalry with the Velamas, another feudal clan. This rivalry also exists to this day in rural areas). Several Reddis were noblemen during the Nizams time, too.
The Reddis of all the various regions mentioned have different traditions and notions and do not seem to have very much in common with each other : they have more in common with other communities of their regions. Given the background one would expect they are all feudal reactionary upper caste bigots : not so, they were prominent in reform activities too. In medieval times they were enthusiastic backers of Saivite and Vaishnavite reform movements too. In south coastal areas --guntur, for instance--- reddis intermarried with Brahmins and others under the influence of saivite reformers. In Telangana area they used to wed girls from other communities but the offspring wouldn't bear the clan name. In north Andhra Pradesh, during the communist-led Telangana people's movement against the feudal Nizam state in the 1940's, there were many comrades from a Reddy background. Eventually, a large number of Reddis went into business especially construction and films and have made a name for themselves in the field. --Nagi reddi , etc. Don't forget Kalabandhu Subbiramireddy. In recent times they are prominent in the world pharmaceutical industry too, like Dr Anji Reddy. Dr. Neelam Sanjiva Reddy was a President of India. (etc etc, many others too long to list. Generally they are embarrassed if listed).
While the older generation of Reddis had a feeling for the "land" and flair for farming, and leadership of the villages, nowadays there is a rapid change in rural areas: the younger Reddis are losing interest in rural life (not just farming, but the ramifications like district politics) and migrating to the cities, becoming urban professionals and businessmen. Fairly large numbers have migrated to the USA. They are prominent in Telugu organizations in the USA. Australia and NZ also seem to be attracting Reddis.
Origin
Regarding the origin of the term and specific caste there are various theories:
The oral traditions of Reddys state (first Reddy is a charioteer who impressed the king with his courage in the battle and own some lands) that Reddy is a corruption of Ratti meaning chariot or charioteer and their ancestors were charioteers for the Rashtrakutas. The Reddys may have been early practitioners of agriculture and farming. "Reddy" is derived from the Telugu word "redu" which means farm land. Some linguists surmised the word Reddy originated from the medieval term Rattodu, which is derived from Rashtrakutudu. The Rashtrakutas employed wealthy local farmers to head villages and collect taxes in the empire and conferred the title of Reddy. The usage of the word Reddy specifically was first seen in the inscriptions made during the Renati Chola times (7th century CE)).
Another theory relates the Reddies to the Rathis, who ruled over small principalities in the Deccan plateau before 200 BCE and before the Satavahanas and Mauryas. The Rathis left coins in northern Andhra Pradesh, Kurnool district, and near Pune. The coins are found in the levels between the megalithic and Satavahana levels in excavations.